भाषा-साहित्य

पूर्वोत्तर भारत के लोकसाहित्य की विशेषताएँ

पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी पर्वतशिखरों एवं सुदूर जंगलों में प्राकृतिक जीवन व्यतीत करते हैं जहाँ गीत गाते झरनों, बलखाती नदियों, वन्य – जीवों और नयनाभिराम पक्षियों का उन्मुक्त संसार है I यहाँ का जीवन सरल और स्वच्छंद है I यहाँ जीवन की आपाधापी नहीं, समय की व्यस्तता नहीं,कोई कोलाहल नहीं – तनावरहित जीवन, न्यूनतम आवश्यकताएं, कोई महत्वाकांक्षा नहीं, भविष्य की कोई चिंता नहीं I इन परिस्थितियों में इनके उर्वर मस्तिष्क में कल्पना की ऊंची उड़ान उठती है I फलतः लोकगीतों, लोककथाओं, मिथकों, कहावतों, पहेलियों का सृजन होता है I लोकसाहित्य की दृष्टि से पूर्वोतर भारत अत्यंत समृद्ध है I पूर्वोतर की पुरानी पीढ़ी को लोकसाहित्य का जीवंत भंडार गृह कहा जा सकता है I लोकसाहित्य वाचिक परंपरा में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता है I
• पूर्वोत्तर भारत की आर्थिकी कृषि पर निर्भर है I अतः अधिकांश पर्व – त्योहार कृषि से संबंधित है I बीज बोने, फसल कटने के उपरांत अनेक पर्व – त्योहार मनाए जाते हैं I नृत्य – गीत इन त्योहारों के अभिन्न अंग है I त्योहारों के अवसर पर इष्ट देवों को प्रसन्न करने के लिए सामूहिक स्तर पर नृत्य – गीत प्रस्तुत किए जाते हैं I इसलिए पूर्वोतर के लोकसाहित्य में त्योहारों से संबंधित गीतों, नृत्यों और आख्यानों की संख्या सबसे अधिक है I
• प्राचीनकाल में पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समूहों के बीच परस्पर लड़ाई – झगडे होते रहते थे I कभी – कभी ये झगडे युद्ध का रूप धारण कर लेते थे I इस युद्ध में अनेक लोग मारे जाते थे I इसलिए इस क्षेत्र के प्रायः सभी आदिवासी समुदायों में युद्ध नृत्य और युद्ध गीत की परंपरा विद्यमान है I युद्ध नृत्य और युद्ध गीत वीर रसात्मक होते हैं एवं लोगों में शौर्य व पराक्रम का संचार करते हैं I गीतों में अतीत में घटित युद्धों के उल्लेख के साथ – साथ समुदायों के पूर्वज योद्धाओं के वीरतापूर्ण आख्यान वर्णित होते हैं I
• पूर्वोत्तर का समाज उत्सवधर्मी है I इस क्षेत्र के अनेक आदिवासी समुदायों में मृत्यु को भी उत्सव के रूप में समारोहपूर्वक मनाया जाता है I मदिरा पीकर ग्रामवासी पूरी रात नृत्य करते हैं और गीत गाकर मृतक की आत्मा की शांति के लिए कामना करते हैं I इसलिए इस अंचल में मृत्यु गीतों व मृत्यु नृत्यों की उन्नत परंपरा है I
• पूर्वोतर के लोकसाहित्य में पशु – पक्षियों, पेड़ – पौधों, जीव – जंतुओं आदि का मानवीकरण किया गया है I यहाँ जड़ वस्तुएं भी मनुष्य की तरह बातें करती हैं, प्रणय निवेदन करती हैं तथा एक – दूसरे के सुख – दुःख में सहभागी बनती हैं I पशु –पक्षी भी परस्पर विचार – विनिमय करते हैं तथा सुख – दुःख में एक दूसरे की सहायता करते हैं I पर्वत – वृक्ष भी मानव के हर्ष – विषद में हर्षित – रोमांचित – उद्वेलित होते हैं I
• इस अंचल के लोकसाहित्य में वन, पहाड़, देवी – देवता, भूत – प्रेत, जादू – टोना, तंत्र – मन्त्र, नदी, तालाब, पेड़ – पौधे इत्यादि से संबंधित आख्यानों, गीतों, कथाओं और पहेलियों का बाहुल्य है I इस अंचल के लोकसाहित्य में दैवीय गुणों से युक्त वनस्पतियों, संवेदनशील भूत – प्रेतों और चमत्कारी नदियों – झरनों – तालाबों का उल्लेख बार – बार मिलता है I
• पूर्वोतर के प्रणय गीतों में प्रेम की पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती है I इन गीतों में आत्मसमर्पण, आत्मोत्सर्ग और प्रेम की उदात्तता का भाव है I प्रेमी – प्रेमिका एक – दूसरे के लिए जीने – मरने को तत्पर रहते हैं I प्रेमी – प्रेमिका के प्रणय निवेदन में भावनाओं के आरोह – अवरोह के साथ – साथ शब्द चातुर्य भी मिलता है I
• इस क्षेत्र की अधिकांश जनजातियों में मुखौटा नृत्य की परंपरा विद्यमान है I नर्तकगण विभिन्न पशु – पक्षियों का मुखौटा धारण कर पारंपरिक नृत्य करते हैं I बरसिंगा नृत्य, कंकाल नृत्य, दम्पू नृत्य आदि पूर्वोतर में अत्यंत लोकप्रिय हैं I इन नृत्यों
के द्वारा समाज को नैतिकता का सन्देश जाता है I विशेषकर बौद्ध धर्मावलम्बी जनजातियों में मुखौटा नृत्य की उन्नत शैली मौजूद है जिसके माध्यम से बौद्ध धर्म से संबंधित सन्देश संप्रेषित किए जाते हैं I
• पूर्वोत्तर के कुछ जनजातीय समाज में पशु – पक्षियों के हाव – भाव के आधार पर नृत्य किए जाते हैं I नर्तकगण भालू, मुर्गा आदि पशु – पक्षियों की तरह अंग – संचालन करते हैं तथा वैसी ही आकृति बनाकर संदेशों को अभिव्यक्त करते हैं I नागालैंड में मुर्गा नृत्यथ, झिंगुर नृत्यक, भालू नृत्य आदि खूब लोकप्रिय है। हेतातेउली अथवा भालू नृत्य द्वारा योद्धाओं में उत्साह व पराक्रम का संचार करता है।
• पूर्वोत्तर में नृत्य सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग है I इसके द्वारा लोग अपने हर्ष – विषाद, विजय – पराजय, उल्लास – उमंग आदि प्रकट करते हैं I पूर्वोत्तर के कुछ समाज में नृत्य भी एक प्रकार की उपासना और ईश्वर प्राप्ति का एक साधन है I यहाँ नृत्य एक पवित्र कर्म माना जाता है I इसे प्रस्तुत करने के लिए कुछ सुनिश्चित नियम होते हैं I जहाँ नृत्य की प्रस्तुति हो वह स्थान पवित्र होना चाहिए I यहाँ के समाज में धर्म के साथ नृत्य का गहरा जुड़ाव है I जीवन के सभी अवसरों, यथा – जन्म, विवाह, श्राद्ध आदि पर नृत्य की परंपरा विद्यमान है I
• पूर्वोत्तर के समाज में लोककथाओं और मिथकों की समृद्ध परंपरा है I सभी समुदायों में अपने देशंतरगमन, पूर्व पुरुषों तथा ईश्वरीय प्रतीकों के सम्बन्ध में भिन्न- भिन्न मिथक प्रचलित हैं I यहाँ वन्य एवं वन्य- प्राणियों से सम्बंधित लोककथाओं और मिथकों का बाहुल्य है I पूर्वोत्तर के आदिवासी समुदाय मिथकों में सृष्टि, पेड़, पर्वत, जल, मानव, पशु- पक्षी, जीव- जंतु आदि की उत्पत्ति की कथा वर्णित है I यहाँ प्रेम- कथाएं भी पर्याप्त संख्या में मिलती हैं I शिकार सम्बन्धी लोककथाएं भी खूब लोकप्रिय हैं I इन लोककथाओं में मानवीय मूल्यों को प्रतिस्थापित करने की भावना निहित होती है I
• पूर्वोत्तर के लोकगीतों में वीरगाथात्मक आख्यान, देशांतरगमन संबंधी घटनाएँ, पूर्वजों की उपलब्धियां तथा आखेट से जुडी अनुभव वर्णित होते हैं I अधिकांश लोकगीत व लोककथाएँ मिथकों पर आधारित हैं I यहाँ की कहावतें एवं दंतकथाएँ पूर्वजों द्वारा अर्जित अनुभव और अतीत की घटनाओं पर आधारित हैं I
• सामूहिकता बोध पूर्वोत्तर की विशेषता है I किसी व्यक्ति का जीवन समुदाय से अलग नहीं होता है I यहाँ व्यष्टि नहीं, समष्टि महत्वपूर्ण है I इसलिए पूर्वोत्तर में नृत्य – गीत की प्रस्तुति सामुदायिक स्तर पर होती है I इससे परस्पर भाईचारे की भावना सुदृढ़ होती है I
• धर्म पूर्वोत्तर भारत के लोगों का प्राण तत्व है I धार्मिक मान्यताएं कदम – कदम पर इनका पथ आलोकित करती हैं I अतः इष्ट देवताओं, ईश्वरीय प्रतीकों, भूत- प्रेतों आदि से संबंधित उपासना गीतों, संस्कार गीतों और संस्कार नृत्यों का आधिक्य है I इन नृत्य – गीतों में उत्साह, उत्तेजना, ऊर्जा और सम्पूर्ण समर्पण होता है I
• पूर्वोत्तर भारत में विद्यमान युवागृह लोकसाहित्य को पल्लवित – पुष्पित करने में महती भूमिका का निर्वाह करते हैं I यहाँ पर युवा पीढ़ी नृत्य – गीत का प्रशिक्षण प्राप्त कर वाचिक परंपरा को आगे बढ़ाती है I
सैकड़ों आदिवासी समूहों का क्षेत्र पूर्वोत्तर अपनी विविधतापूर्ण संस्कृति के विख्यात है I सरल जीवन और न्यूनतम आवश्यकता के कारण आदिवासी समाज के पास चिंतन, मनन, आत्मावलोकन, कल्पना, नृत्य – गीत, गपशप के लिए भरपूर समय होता है I खाली समय में इनकी कल्पनाएँ ऊंची उड़ान भरती हैं तथा उनके उर्वर मन – मस्तिष्क से कहानियों, कविताओं, गीतों, कहावतों की अविरल धारा फूट पड़ती है I हजारों की संख्या में कहानियां, गीत, मिथक आदि वाचिक परंपरा में मौजूद हैं जिन्हें अभी तक लिपिबद्ध नहीं किया गया है I दो – चार को छोड़कर पूर्वोत्तर की अधिकाँश भाषाओँ के पास अपनी लिपि नहीं है I लिपिहीनता इस क्षेत्र के लोकसाहित्य के संरक्षण – संकलन – प्रकाशन में सबसे बड़ी बाधा है I अतः आवश्यक है कि देवनागरी लिपि में पूर्वोत्तर भारत के लोकसाहित्य का संकलन – प्रकाशन के लिए भगीरथ प्रयास किए जाएँ अन्यथा काल – प्रवाह में साहित्य के इस विशाल भंडार का क्षरण हो जाएगा तथा हमारा समाज इस समृद्ध विरासत से वंचित रह जाएगा I

*वीरेन्द्र परमार

जन्म स्थान:- ग्राम+पोस्ट-जयमल डुमरी, जिला:- मुजफ्फरपुर(बिहार) -843107, जन्मतिथि:-10 मार्च 1962, शिक्षा:- एम.ए. (हिंदी),बी.एड.,नेट(यूजीसी),पीएच.डी., पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक,साहित्यिक पक्षों,राजभाषा,राष्ट्रभाषा,लोकसाहित्य आदि विषयों पर गंभीर लेखन, प्रकाशित पुस्तकें :1.अरुणाचल का लोकजीवन 2.अरुणाचल के आदिवासी और उनका लोकसाहित्य 3.हिंदी सेवी संस्था कोश 4.राजभाषा विमर्श 5.कथाकार आचार्य शिवपूजन सहाय 6.हिंदी : राजभाषा, जनभाषा,विश्वभाषा 7.पूर्वोत्तर भारत : अतुल्य भारत 8.असम : लोकजीवन और संस्कृति 9.मेघालय : लोकजीवन और संस्कृति 10.त्रिपुरा : लोकजीवन और संस्कृति 11.नागालैंड : लोकजीवन और संस्कृति 12.पूर्वोत्तर भारत की नागा और कुकी–चीन जनजातियाँ 13.उत्तर–पूर्वी भारत के आदिवासी 14.पूर्वोत्तर भारत के पर्व–त्योहार 15.पूर्वोत्तर भारत के सांस्कृतिक आयाम 16.यतो अधर्मः ततो जयः (व्यंग्य संग्रह) 17.मणिपुर : भारत का मणिमुकुट 18.उत्तर-पूर्वी भारत का लोक साहित्य 19.अरुणाचल प्रदेश : लोकजीवन और संस्कृति 20.असम : आदिवासी और लोक साहित्य 21.मिजोरम : आदिवासी और लोक साहित्य 22.पूर्वोत्तर भारत : धर्म और संस्कृति 23.पूर्वोत्तर भारत कोश (तीन खंड) 24.आदिवासी संस्कृति 25.समय होत बलवान (डायरी) 26.समय समर्थ गुरु (डायरी) 27.सिक्किम : लोकजीवन और संस्कृति 28.फूलों का देश नीदरलैंड (यात्रा संस्मरण) I मोबाइल-9868200085, ईमेल:- [email protected]