गीत : इक दीप जले उनकी खातिर
(भारत के अमर जवानों को, उनके परिवारों को समर्पित है इस दीवाली का हर दीप और मेरी कविता का हर शब्द)
दहलीज अभी दहली होगी, आँगन स्तब्ध खड़ा होगा
घर के कोने कलुषित होंगे, चूल्हे पे दर्द चढ़ा होगा
तस्वीर लिए माँ हाथों में, कुछ बातें बोल रही होगी
पत्नी यूं ही हर आहट पर, दरवाज़ा खोल रही होगी
अनमने पिता बूढ़े होंगे, घर भर को समझाते होंगे
बच्चे पीड़ा के प्रश्न लिए, स्कूल अभी जाते होंगे
है खड़ा दुआरे पर आओ, उस दुखी नीम की छाँव चलें
लेकर इक दीप सहारे का, आओ शहीद के गाँव चलें
जो सरहद की रखवाली का सिलसिला चलाकर चले गए
इक दीप जले उनकी खातिर जो जिस्म जलाकर चले गए
हर आँगन सजे रंगोलो, गोली को सीने पर झेल गए
घर घर दीपक में तेल रहे, प्राणों की बाजी खेल गए
हम पुष्प सेज पर लेटे हैं, वो बारूदों पर लेटे थे
इक दीप जले उनकी खातिर, जो भारत माँ के बेटे थे
हम नेताओं अभिनेताओं की दीवाली में मस्त रहे
लटकाकर झालर चायनीज़, आतिशबाजी में मस्त रहे
यह कवि गौरव चौहान कहे, उन वीरों का भी ध्यान रहे
हर जश्न मने, लेकिन दिल में उन वीरों का स्थान रहे
वो डंटे रहे सीमाओं पर, अवकाश कहाँ त्योहारों पर
यह देश अभी तक भूला था, क्या गुज़री उन परिवारों पर
लेकिन अब भारत जाग रहा, दीवाली की अगवानी में
हम समझ गए क्या शिद्दत थी, उन वीरों की कुर्बानी में
हम समझ गए सीमाओं की हर रात बहुत ही काली है
कुछ दीप वहां पर बुझते हैं, तब मानती यहाँ दिवाली है
केवल वेतन के लिए नहीं वो जूझ रहे प्रतिघातों से
कुछ रिश्ता इस धरती से था, हर जंग लड़ी जज़्बातों से
सर्वस्व लुटाया भारत पर, बोटी बोटी बलिदान हुए
इक दीप जले उनकी खातिर, जो सीमा पर कुर्बान हुए
— कवि गौरव चौहान