कहानी

“दीया और बाती”

राम राम झिनकू काका, कैसे हैं आप…….सब खैरियत तो है न………
कब पधारे बबुआ, बहुत दिन बाद गांव याद आया………..ठीक हूँ बचवा, अब क्या हाल और क्या चाल, न चाक में दम रहा न इन बाजुवों में। मैं मॉंटी और मेहनत सब के सब बूढ़े हो गए।
अब तो दीये पर लाली भी नहीं चढ़ती, कितनी भी आग जला दूँ इस आंवें में धधकता ही नहीं। चितकबरी हो ही जाती है, हाँ कुछ एक साबूत निकल आती है। अब न तो खरीदार ही हैं नाही मॉंटी में वह चिकास, गुजारा चल रहा है, इसी का भरोशा भी तो है। देखों न कोने में पड़ी है, निहार रही है किसी घर को प्रकाशित करने के लिए। वह समय और था जब लाईन लगवाती थी अपने जलवें पर………अब तो झालर और झूमरी पर लोग- बाग़ फ़िदा हैं।
हाँ काका, सही कह रहें है आप, समय बदल गया है और दीपावली भी आधुनिक हो गई है। सबके दरवाजे पर इंद्रधनुषी रोशनी जगमगा रही है, इन्वर्टर का कमला है बरना बिजली तो दिन में ही सूरज के साथ-साथ आती और जाती है, रात को तो अब भी लालटेन ही गुलजार करता है। गाँव होकर शहर को आइना दिखा रहा है शायद इसी लिए अपने नाती का नाम, आप ने विकाश रखा है, है न काका।
हा हा हा हा हा, मजाक करने की तुम्हारी आदत अभी भी नहीं गई बाबू, याद है न जोखई बहु अपनी चर्चित बहन को लेकर इसी दीवाली के त्यौहार पर दीया लेने आई थी और तुमने कहा था, का भौजी ई दियरी में बाती कब पुराईं, और लाठी खनक गई थी।
हाँ काका याद है, वह समय और था, जोखई भैया भी बाद में बहुत पछताए, शाली के साथ मजाक तो बनता है। मेरा आशय गलत नहीं था हाँ उमर जरूर मदमाती थी।
लो आ गया विकशवा, चल, दिन भर घूमता है इकतीस दीया गिनकर चाचा के घर पंहुचा दे। अभी गिनता हूँ…..राम दू तीन…..हो गया बाबा, चाचा से पैसा ले लेना, मैं सायकल से पंहुचाकर अभी आया………हाँ हाँ जा, बड़ा आया पैसा मांगने वाला…..बेशर्म कहीं का।……आज के बच्चे हैं बाबू, देख लिए न अदब न भाव……
अरे काका आप भी, बच्चा है…..सौ रुपए की नोट पकड़ाते हुए, रखिए और आशीर्वाद दीजिए……. रहने दो बाबू, आप दीया के बहाने मुझसे मिलने आए, यही मेरी कमाई है, पेटभर अनाज और मनभर अपनत्व खाते पहनते 80 बरस का हो गया, न कमी दूर न दूरी पास आई, पर अब पुराने लोगों की ( ऑंखें डबडबा गई) कमी अखर रही है और बच्चे भी बाहर हैं समय नहीं कटता……टहलते हुए चौराहे पर चला जाता हूँ विकशवा दीया- बर्तन की लारी लगाता है। दस रुपये की पांच, दस रुपये की पांच चिल्लाते रहता है……एक दीया भी किसी को ज्यादे नहीं देता है, डाँटता हूँ माटी का क्या मोल……..पर नहीं मानता, सौ पचास पा जाता है……मस्त रहता है दीपावली की छुट्टी है, खेलक्कड़ है पढ़ने में मन नहीं लगाता, कहता है मैं तो कुम्हार ही बनूँगा……
काका यह तो आप के प्यार और संस्कार का असर है वर्ना आज गांव में कौन रहना चाहता है विकाश अभी बच्चा है पर बड़ा होकर जरूर मॉंटी से सोना निकालेगा। उसके जेहन में मॉंटी का लगाव मैंने भी महसूस किया है, आशीर्वाद दीजिए काका आप का हुनर वह सीख जाय। चलता हूँ काका, आज अपने हाथों दीया जलाऊंगा, वर्षों बाद गाँव की दियादियारी नशीब हुई है मुझे भी आशीष दीजिए…….. राम राम…..शुभ दीपावली……..

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ