संस्कार : एक अमूल्य निधि
संस्कार मनुष्य के कुल की पहचान होते है प्रत्येक परिवार के अच्छे बुरे संस्कार व्यक्ति के जीवन को प्रभावित करते है और आगे चलकर हमारी भावी सोच को भी प्रभावित करते है। प्रत्येक मनुष्य के लिये जीवन में दो पहलू हैं एक भला दूसरा बुरा अब मनुष्य कौन से पहलू को अपनाता है ये उसके संस्कार पर निर्भर करता है। कई बार लोग गलत रास्ते पर जाते-जाते वापस लौट आते है ये उनके संस्कार का प्रभाव होता है। जो जिस मार्ग का अनुसरण करेगा उसी के आधार पर उसके जीवन का मूल्यांकन होता है। बुराई, जड़ता मनुष्य को मनुष्यत्व से नीचे गिराती हैं और भलाई, सहृदयता, सौजन्य उसे मनुष्य बनाते हैं, यही उसके चेतना धर्म के प्रतीक हैं। मनुष्य बनने के लिये हमारी चेतना ऊर्ध्वगामी हो। निम्नगामी न हो परन्तु आज हो इसके विपरीत रहा है लोग रात दिन हाय- हाय कर रहे हैं धन की, प्रतिष्ठा की, ऐश्वर्य कीर्ति की, सत्ता हथियाने की, अपने को बड़ा सिद्ध करने की ये प्रवृत्ति निम्नगामी है और इनसे ऊपर उठकर त्याग, सन्तोष, संयम, सदाचार शील, क्षमा, सत्य, मैत्री, परमार्थ आदि गुणों को जीवन में विकसित करना ऊर्ध्वगामी चेतना के लक्षण हैं।
मानव जब जन्म लेता है तो उसमे किसी भी प्रकार की विकृति नहीं होती है वो एक कोरे कागज़ के समान होता है। इस जीवन रुपी कोरे कागज़ पर वो क्या लिखता है ये उस व्यक्ति के संस्कारों और संगत पर निर्भर करता है। अच्छी संगति मनुष्य में श्रेष्ठ गुणों का विकास कर उसे लोगों के ह्रदय में बैठा देती है वहीं दूसरी और कितना भी प्रभावशाली व्यक्ति हो उसके संगति यदि निकृष्ट है तो वह व्यक्ति समाज के साथ-साथ अपना भी अहित कर बैठता है। इसी परिप्रेक्ष में अपने विध्यार्थी समय में अपने अध्यापक से एक कहानी सुनी थी उस कहानी को आप लोगों के साथ साझा करना चाहूँगा। एक सम्पन्न कुल में दो भाई थे। उन दोनों की शिक्षा- दीक्षा एक ही गुरु द्वारा सम्पन्न हुई, दोनों ही में समान संस्कारों का सिंचन किया गया। जब वे दोनों गुरुकुल की शिक्षा समाप्त करके समाज में अपना स्थान निश्चित करने का प्रयास करने लगे ऐसे समय में एक भाई को बुरे वातावरण में पड़ जाने से जुएँ की लत पड़ गई क्यौंकी वह योग्य पढ़ा लिखा और विद्वान था, साथ ही सत्यवादी भी और जुआरियों की तरह उसमें चालाकी घोखादेही भी न थी इसी कारण वह हार जाता। उसने अपने हिस्से की सारी सम्पत्ति जुआ में लुटा दी और फिर अभावग्रस्त जीवन बिताने लगा। थोड़े समय बाद उसका जीवन स्तर और नीचे गिरा और उसे चोरी और लूट की लत भी पढ गयी। उसकी बुराइयों ने समाज में उसकी छवि मलिन कर दी और वह लोगों की नज़रों में खटकने लगा। लोग उसके मुँह पर बुरा भला कहते।
वहीं दूसरा भाई लोगों की आँखों का तारा था। वह समाज की भलाई के कामों में हाथ बँटाता ,सदाचार का जीवन बिताकर जितनी दूसरों की भलाई हो सकती थी उतनी करता। लोग उसकी बड़ाई करते और उसे घेरे ही रहते। एक दिन पहले भाई का देहान्त हो गया। लोग कहने लगे अच्छा हुआ मर गया तो धरती से एक दुष्ट कम हुआ इसी प्रकार तरह-तरह से उसकी बुराई करने लगे। कुछ समय बाद दूसरे सज्जन भाई का भी देहावसान हुआ तो सारे नगर में शोक छा गया स्त्री-पुरुष रोने लगे उसके उपकारों एवम् उसकी सज्जनता को याद करके, उसके नाम पर समाज में कई संस्थाएँ खोली गई। समाचार पत्रों में उसके नाम पर शोक प्रकट किया गया।
एक ही कुल, एक ही माता-पिता, एक सी परिस्थिति, एक ही वातावरण फिर भी एक भाई को दुनिया कोसती है और दूसरे की रात- दिन बड़ाई करती हुई श्रद्धा प्रकट करती थी, यह क्यों ? इसका एक ही उत्तर है कि पहले भाई ने अपने जीवन में मानवोचित गुणों का विकास कर समाज में श्रेष्ठ योगदान दिया जबकि दुसरे भाई ने अच्छी शिक्ष दीक्षा होने के बाद भी बुरी संगत होने के कारन समाज को अपनी विकृत सोच से प्रभावित किया। पहले ने अपने जीवन में मनुष्य धर्म को भूल कर पाप का आचरण किया, हैवानियत का रास्ता अपनाया जबकि दूसरे ने इंसान के पुतले में जन्म लेकर इन्सान बनने की कोशिश की।
राम चरित मानस में आता है की जब राम को वनवास हुआ तो पूरी अयोध्या ने आंसू बहाए यहाँ तक की लोग अपनी धन सम्पत्ति और घर परिवार छोड़कर वन में जाने तक को तयार हो गये उसका था की राम ने अपने जीवन में मनुष्यत्व का अवलंबन लिया और अपने श्रेठ कृतित्व से समाज और जन कल्याणकारी कार्य किये आज भी राम को याद करके हमारा मन अहोभाव से भर जाता है। वहीं दूसरी और रावण जो अपने समय का प्रकांड विद्वान् और शक्ति शाली सम्राट था वेदवेत्ता और ग्यानी इतना की जिससे ब्रह्मा और शिव भी प्रभावित थे उसने अपनी तपस्या से तीनो लोकों को अपने आधीन कर लिया था। रावण एक महान विद्वान ,वैज्ञानिक ,शक्तिशाली राजा एव स्वर्ण नगरी का मालिक था समस्त संसार पर उसका प्रभाव था, फिर भी लोग हर साल उसे जलाते है ऐसा क्यों करते है? उत्तर स्पष्ट है। राम ने मनुष्यत्व की रक्षा की और रावण ने मनुष्य बनकर भी मनुष्यता से गिर कर पापाचरण किया लोगों को सताया, अंहकार को बढ़ाया, अपनी नीयत को खराब किया। राम ने घर- घर जाकर मानवता का भरण पोषण और सेवा की।
सम्पत्तिशाली, नेता, विद्वान्, लेखक, सम्पादक, शासक, शक्ति सम्पन्न, वैज्ञानिक होना अलग बात है और मनुष्य बनना दूसरी बात है। इन सबके साथ यदि मनुष्यता का सम्बन्ध नहीं है तो यह सब पत्थर पर मारे गये तीर की भाँति बेकार सिद्ध होंगे। यदि उक्त भौतिक सम्पत्तियाँ प्राप्त करके भी मनुष्यत्व नहीं है तो सब व्यर्थ हैं, केवल बाहरी बनावट मात्र हैं। जैसे लाश को बाहर से अच्छी तरह सजा कर उसे जीवित सिद्ध करना, किन्तु आखिर वह लाश ही रहेगी। चेतना उसे स्वीकार नहीं करेगी। उसी प्रकार बाहरी सोंदर्य का इतना महत्व नही है जितना की भीतरी सोंदर्य का हैं। हम इस प्रकार के बाह्य सौन्दर्य के भ्रम से बचकर अपने अंदर मनुष्यत्व के गुणों का अधिकाधिक विकास करना चाहिए जिससे की हमारा रावण, कुम्भकरण जैसा पतन न हो बल्कि हम मानवीय गुणों का विकास कर दुसरो में भी इन गुणों का विकास कर सके और समाज एवं राष्ट्र को श्रेष्ठ बना सकने में अपन योगदान दे सकें।
— पंकज ‘प्रखर’, कोटा (राज.)