सामाजिक

काला धन

मैं घर से दुकान की तरफ जा रहा था । सुबह का खुशनुमा मौसम था । सडकों पर शोर शराबा लगभग नहीं होता है । अपनी धुन में चलते हुए मुझे किसी की बड़ी ही महीन सी आवाज सुनाई पड़ी ” अरे कान्दुजी ! सुनिए !”

मैं चौंक कर इधर उधर देखने लगा । आवाज महीन थी सो सोचा कोई दुर से पुकार रहा होगा । दूर तक नजर डाली लेकिन दुर दुर तक कोई नजर नहीं आया । सवालिया निगाहों से अपने आसपास का जायजा ले ही रहा था कि वही महीन सी धीमी आवाज पुनः सुनाई पड़ी ” अरे ! इधर उधर क्या देख रहे हो ? अपनी जेब में झांको । मैं तुम्हारी जेब में से ही बोल रहा हूँ । ”

मैंने ध्यान से अपने कमीज की ऊपर की जेब की तरफ देखा । वाकई आवाज मेरी जेब में से ही आ रही थी । जेब में झांक कर देखा । एक मुडा तुड़ा सौ रुपये का नोट फडफडाते हुए कुछ कहने की कोशिश कर रहा था । नोट को पहली बार बोलते हुए सुनकर मुझे आश्चर्य अवश्य हुआ लेकिन बहुत ज्यादा नहीं क्योंकि मैं पूर्व में भी ऐसी घटनाओं से दो चार हो चूका हूँ । सोचा अवश्य यह कुछ जरुरी बात कहना चाहता होगा । सुन लेने में क्या बुराई है ? लेकिन उसकी आवाज इतनी महीन थी कि ठीक से सुनाई भी नहीं पड़ रही थी । उसे दो मिनट रुकने के लिए कहकर मैं समीप ही नगरपालिका के बगीचे में जाकर एक बेंच पर बैठ गया और बोला ” हाँ ! तो महाशय जी फरमाइए ! आप क्या कहना चाहते थे ? ”

” यही तो मैं कहना चाहता हूँ कि जमाना कितना बदल गया है । अब देखो ! तुम ही कितनी बेअदबी से मुझसे पेश आ रहे हो ? ” रुपये ने नाराजगी जाहिर करते हुए मुझसे कहा ।

लेकिन मैं उसकी बात शायद ठीक तरह से समझ नहीं पाया था सो स्पष्टीकरण की नियत से उससे पूछ ही लिया ” महाशय ! मैं कुछ समझा नहीं । मैं तो आपसे इतनी इज्जत से पेश आ रहा हूँ और आप हैं कि नाराज हुए जा रहे हैं । इसे बेअदबी बता रहे हैं । ”

मुझे हैरान देखकर रूपया हवा के झोंके से ताल मिलाते हुए फडफडा कर बोला ” हाँ ! तुम बेअदबी ही कर रहे हो । एक वक्त था जब हमारी लोग कितनी कदर करते थे । हम नोटों को माँ लक्ष्मी का स्वरुप मान कर पूजन किया जाता था । सीने से लगा कर रखा जाता था । सर माथे पर चढ़ाया जाता था । बच्चों को यह संस्कार दिया जाता था कि वो हमारी परवाह करें हमारी कदर करें । लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है । अब खुद को देख लो । इस कदर मुझे तोड़ मरोड़ कर तुमने अपनी जेब में रखा है कि मुझे तो कराहने के अलावा और कुछ सूझ ही नहीं रहा है । बताओ क्या यह मेरी बेअदबी नहीं है ? ” रूपया एक सांस में सब बोलता गया ।

लेकिन मुझे मेरी गलती समझ में आ गयी थी । सो बोला ” सही कहा है आपने ! मुझे आपको सहेज कर रखने की आदत डाल लेनी चाहिए । ” कहते हुए मैंने उसे जेब से नीकाल कर सीधा किया और दो तह करके उसे पुनः अपनी जेब में रख लिया । बोला ” क्या इसीलिए तुमने मुझे आवाज दी थी । ”

तुरंत ही उसकी महीन धीमी आवाज मेरे कानों में गूंज उठी ” अरे नहीं ! मैं तो कुछ जरुरी बात तुमसे कहना चाहता हूँ जो मुझे उम्मीद है कि तुम सुनकर उसपर गौर करोगे और दूसरों को भी बताओगे । यह तो मैंने तुमसे ऐसे ही शिकायत कर दी । नानी तो हमें तब याद आती है जब महिलाएं अपने छोटे से पर्स में हमें ठूंस देती हैं । सच में हमें ऐसा लगता है जैसे हमारी जान ही निकल जाएगी । हम दो टुकडे हो जायेंगे । लेकिन जब वो हमें अपने पर्स की कैद से आजाद करके किसी दुकानदार से कुछ खरीद लेती हैं तब हमारी जान में जान आती है । अब यहाँ से हमारा सफ़र एक बार फिर शुरू हो जाता है । कई लोगों के हाथ से होकर गुजरते हुए हम अपना जीवन सफ़र पूरा कर रहे होते हैं । इसी सफ़र के दौरान जब हम किसी गरीब के हाथों में आ जाते हैं तो उसकी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहता ।

रिजर्व बैंक के मुद्रणालय से निकल कर हम विभिन्न बैंकों में पहुंचते हैं । बैंकों से इन्सान अपनी जरुरत के मुताबिक हमें बाहर निकालता है । नए नए नोट देखकर उस आदमी के चेहरे पर ख़ुशी छलक पड़ती है । उसके ख़ुशी का अनुभव कर हम लोग भी खुश हो जाते हैं ।

सभी अच्छे बुरे लोगों के संपर्क में आकर हम उनके काम ही आते हैं । हमारे ही दम पर दुनिया की सारी गतिविधियाँ चलती हैं । यह सब तो तुम जानते ही हो । अब और क्या बयान करना । आज मैं तुमसे मुखातिब एक खास वजह से हुआ हूँ ।

विगत कई दिनों से ‘ काला धन ‘ समाचारों की सुर्खियाँ बना हुआ है । आम आदमी से लेकर ख़ास तक पंडित मुल्ला से लेकर साधुओं और मौलवियों तक अमीर से लेकर गरीब क्या किसान क्या उद्योगपति क्या नेता क्या अभिनेता कहने का तात्पर्य ये कि ऐसा कोई नहीं है जो इस बहस में न कूदा हो । एक से बढ़कर एक ज्ञान बघारने वालों के बयान भी आते रहते हैं लेकिन क्या किसीने सोचा कि ये जो शब्द ‘ आप लोगों ने इजाद किया है ‘ क़ाला धन ‘ हम लोगों को कितनी चोट पहुंचाता है ?

अरे मैं तो वही रहता हूँ चाहे किसी आम आदमी के पास रहूँ या किसी धन्ना शेठ के पास । आम आदमी सब कुछ नियमित और कानूनन व्यवहार करते हैं जबकि ये तथाकथित जनता के सेवक बड़े उद्योगपति जरुरत से ज्यादा कमाई करके बचे हुए नोटों को कहीं काल कोठरी में ठूंस देते है । अब बताओ ! पहले तो ये सफेदपोश लोग हमसे हमारी आजादी छीन लेते हैं । आम लोगों और गरीबों की जरूरतें पूरी होने पर उनके दिल से जो दुआएं निकलती हैं हम उनसे भी वंचित रह जाते हैं । काली कालकोठरी में पड़े हम करवट भी नहीं ले पाते । और इतना सब कुछ हम इंसानों की वजह से ही झेलते हैं और ऊपर से तुर्रा ये कि अपने गुनाहों की कालिख हमारे सीर मंढ देते हैं । अपने काले कारनामों की कमाई से अर्जित धन को काला धन कहने लगते हैं । अब तुम्हीं बताओ ! क्या यह हमारे साथ नाइंसाफी नहीं है ? हमें काला धन कहने की बजाय अपने कारनामों को काला क्यों नहीं कहते ?

अपने गुनाहों की कालिख हमारे सीर कोई कैसे मल सकता है ? क्या हमारे भावनाओं की कोई कदर नहीं ? जबकि हमारी तरफ देखो ! हम क्या करते हैं । हम कभी भी किसी इन्सान में कोई फर्क नहीं करते । सबकी बराबर सेवा करते हैं । जिसके यहाँ भी जाते हैं उसका घर खुशियों से भर देते हैं । हमारी ही वजह से रिश्ते बनते भी हैं और बिगड़ते भी हैं । अब इस बनने बिगड़ने के पीछे भी इन्सान की समझदारी और नासमझी ही जिम्मेदार है । इसमें भी कुछ लोग ज्ञान बघारते हैं ‘ भैया ये जो पैसा है न बड़ी बुरी चीज है ‘ अब ऐसे लोगों को कौन समझाये कि बुरे हम नहीं बुरा इंसानों का स्वार्थ होता है जो हमारे लिए किसीको भी ठगने से बाज नहीं आते । ”

अब मुझे उसकी सभी बातें समझ में आ गयी थीं और मैंने सहमति में सीर हिलाते हुए बोला ” वाकई ! यह आपके साथ नाइंसाफी ही है । खैर जाने दीजिये आखिर इंसान गलतियों का पुतला ही तो है । ”
कहकर मैं जल्दी जल्दी दुकान की तरफ चल पड़ा ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।