एक मुक्त काव्य………
सुबह से शाम हुई
कतारें बदनाम हुई
धक्का मुक्की बोला चाली
काका हजारी की राम राम हुई।।
दिन भर चले अढ़ाई कोस
घर से निकले हो मदहोश
नए नोट का सपना अपना
बैंक भर गए पुराने कोष।।
दो हजारी बाहर आई
सेल्फ़ी ने माला पहनाई
चेहरे चढ़ी है लाली लाल
शादी मंडप अरु शहनाई।।
नए कदम की नई चहल
जाओ बबुआ अपने महल
रखो न मनवा कोई मलाल
ओढो गृहस्ती नई पहल।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी