कुछ मुक्तक
हमारा आवरण जिसने, सजाया और सँवारा है,
हसीं पर्यावरण जिसने, बनाया और निखारा है।
बहुत आभार है उसका, बहुत उपकार है उसका,
दिया माटी के पुतले को, उसी ने प्राण प्यारा है।।
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बहाई ज्ञान की गंगा, मधुरता ईख में कर दी,
कभी गर्मी, कभी वर्षा, कभी कम्पन भरी सरदी।
किया है रात को रोशन, दिये हैं चाँद और तारे,
अमावस को मिटाने को, दियों में रोशनी भर दी।।
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दिया है दुःख का बादल, तो उसने ही दवा दी है,
कुहासे को मिटाने को, उसी ने तो हवा दी है।
जो रहते जंगलों में, भीगते बारिश के पानी में,
उन्ही के वास्ते झाड़ी मे कुटिया सी छवा दी है।।
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सुबह और शाम को मच्छर सदा गुणगान करते हैं,
जगत के उस नियन्ता को, सदा प्रणाम करते हैं।
मगर इन्सान है खुदगर्ज कितना आज के युग में ,
विपत्ति जब सताती है, नमन शैतान करते है।।
— डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’