ग़ज़ल “सुरभित सुमन रोया हुआ”
नीड़ में सबके यहाँ प्रारब्ध है सोया हुआ
काटते उसकी फसल जो बीज था बोया हुआ
खोलकर अपनी न देखी, दूसरों की खोलता
गन्ध को है खोजता, मूरख हिरण खोया हुआ
कोयले की खान में, हीरा कहाँ से आयेगा
मैल है मन में भरा, केवल बदन धोया हुआ
अब तो माली ही वतन का खाद-पानी खा रहे
इस लिए आता नज़र सुरभित सुमन रोया हुआ
खोट ने पॉलिश लगाकर “रूप” कंचन का धरा
पुण्य ने बनकर श्रमिक अब, पाप को ढोया हुआ
— डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’