संतुष्टि को घुन
समीरा शीतल-मंद-सुगंधित समीर की तरह हर समय स्मित हास्य से प्रफुल्लित रहती थी. अपने आप में संतुष्ट समीरा की गृहस्थी मज़े-मज़े में चल रही थी. एक दिन उस संतुष्टि को न जाने कैसे घुन लग गया. अपनी सहेलियों की देखादेखी उसे भी बच्चों को विदेश में पढ़ाई करवाने की धुन लग गई. पति के लाख मना करने पर भी तीनों बच्चों को लेकर वह सिडनी चली गई. पति अपनी जमी-जमाई नौकरी छोड़कर तो जा नहीं सकते थे, पर उन्होंने विदेश जाने की तैयारी में उसे पूरा सहयोग दिया. अपनी हिम्मत और लगन से वहां उसे सब सुविधाएं भी मिल गईं, बच्चे भी पढ़-लिखकर लायक बन गए, तीनों बच्चों की शादियां भी हो गईं, उनके बच्चे भी हो गए. पति हर अवसर पर हाज़िर भर हो जाते थे, लेकिन वह आना-मिलना भी कोई आना-मिलना हुआ! यही सब करते-करते उनकी रिटायरमेंट का समय आ पहुंचा. रिटायर होकर वे भी सिडनी आ गए, लेकिन समय की बलिहारी दोनों सुपुत्रों को बच्चों की देखभाल के लिए माता-पिता में से किसी एक की ज़रूरत थी. लिहाज़ा समीरा एक देश में रहती और उसके पति दूसरे देश में. अब पहले से भी कम मिलना होता था. बच्चों के लिए यह सब सामान्य था, उन्हें इसमें माता-पिता की आहुति की कोई झलक नहीं दिखाई दी. संतुष्टि के घुन ने दोनों के जीवन से अपनी आहुति ले ली थी.