जीवन कठिन पहेली थी पर फिर भी कठिन नही थी
जीवन की सच्चाई उससे फिर भी कठिन नही थी
जिस कठिनाई से जीवन भर रहा जूझता हर दिन
उस कठिनाई से कोई कठिनाई कठिन नही थी। .
जीवन की हर सांस मुझे कुछ रस्ता बता रही थी
हरेक साँस जीवन में हर पल मुझ को सिखा रही थी
पर क्या जाने कौन सांस नव पथ पर बढ़ जाएगी
होड़ लगी थी सांसों में क़ि अब वह बढ़ जाएगी।
सांसों का खेला ऐसा है ख़त्म अचानक होता
कौन रूठ कर घर को चल दे यह अचानक होता
बहुत मनाने पर भी साथी वापिस कब आता है
चला गया जो साँस दुबारा खेल कहाँ पाता है।
— वेद प्रकाश शर्मा ‘व्यथित’