लघुकथा : वजन
”पंडित जी, तहसील में कैसे ?—सब कुशल मंगल तो है ? —अरे गुरु बाबा, आज यहां ——? —क्या हो गया महाराज, कुछ परेशान -से दिख रहे हैं ?” ऐसे कई सवाल कथावाचक और हनुमान मंदिर के पुजारी नकुलदेव से लोग पूछ चुके थे।
कारण बताते -बताते पंडित जी तंग आ चुके थे। शाम होने वाली थी। न अन्न से भेंट हुई थी न पानी से।
” क्या बात है, गुरुवर, घण्टों से इस पेड़ के नीचे क्यों बैठे हैं ?” किसी ने फिर पूछा।
” क्या बताऊं कि क्यों बैठा हूं ? जमीन-जायदाद की झंझट में फंस गया हूं। साला चपरासी सुबह से एक फाइल तक नहीं निकाल पाया। टालमटोल कर रहा है।”
” कुछ पैसे दिए हैं ?”
” हां, 50 रुपए दिए हैं। ”
” तभी देर कर रहा है वह। यहां उल्टा चलता है, गुरुदेव।”
” कैसा उल्टा।”
” जैसे आप 51 रुपए दक्षिणा देने वाले को दस मिनट में निपटा देते हैं, 151 देने वाले को आधे घंटे में और हजार -पांच सौ देने वाले को विधिवत कथा सुनाते हैं। चपरासी इसका उल्टा करता है। 500 देने वाले का काम 5 मिनट में और 50 रुपए देने वाले का काम 5 घंटे में करता है। ‘वजन’ बढ़ाइए, फौरन काम हो जाएगा। ”
— राजकुमार धर द्विवेदी