एक प्रतीक, एक फसाना
सड़क के बीचोंबीच पीपल का एक पेड़ था। छोटा था तो लोगों को कोई परेशानी नहीं थी लेकिन पेड़ जब विशाल और छतनार हो गया तो यातायात बाधित होने लगा। पेड़ के कारण दुर्घटनायें भी होने लगीं। इसलिए प्रशासन ने पीपल के पेड़ को काटने का फैसला किया। इस फैसले ने जनता को दो वर्गों में बांट दिया-वृक्ष समर्थक और वृक्ष विरोधी। इस एकमात्र फैसले ने जनता में उबाल पैदा कर दिया। लोग आंदोलित होकर सडकों पर उतर आए। इस फैसले ने सदियों से साथ-साथ रह रहे पड़ोसियों के बीच दीवार खींच दी। एक वर्ग का कहना था कि किसी भी कीमत पर वृक्ष नहीं कटना चाहिए जबकि दूसरा वर्ग शीघ्र इस वृक्ष का उन्मूलन चाहता था। वृक्ष के पक्ष और विपक्ष में एक से बढ़कर एक तर्क दिए जाते, रामायण और महाभारत के दृष्टान्त प्रस्तुत किए जाते तथा ऋषि-मुनियों की सूक्तियां पेश की जातीं। वृक्ष समर्थकों का कहना था कि पीपल हमारी आस्था का जीवित प्रतीक है। यह हमारी परंपरा और गौरवशाली संस्कृति का साक्षी है। यह जड़ वृक्ष नहीं बल्कि हमारा अनुभवी बुजुर्ग है, हमारा अभिभावक है जो हमें छाया तो देता ही है, हमारा दिशा-निर्देशन भी करता है। इसके हर पत्ते में देवताओं का निवास है। यह पीपल हमारे धर्म, ईमान और निष्ठा का पूंजीभूत रूप है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष हूँ-अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणा। स्कन्दपुराण में तो पीपल वृक्ष को मूर्तिमान श्री विष्णु स्वरूप कहा गया है। पीपल की जड़ में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में भगवान हरि और फल में सब देवताओं से युक्त अच्युत सदा निवास करते हैं-
मूले विष्णु: स्थितो नित्यं स्कंधे केशव एव च।
नारायणस्तु शाखासु पत्रेषु भगवान हरिः।
फलेअच्युतो न संदेहः सर्वदेवै: समन्वितः।
पीपल कामनादायक वृक्ष है। यदि यह कट गया तो हमारा धर्म, विश्वास,परंपरा,संस्कृति और कामनादायक आश्रय सब कुछ नष्ट हो जाएगा। न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से बल्कि पर्यावरण की दृष्टि से भी इसकी उपयोगिता असंदिग्ध है। यह तो ऑक्सीजन का खजाना है। दूसरी ओर वृक्ष विरोधी वर्ग हर हाल में वृक्ष को उन्मूलित कर देना चाहता था। उनका कहना था कि वृक्ष के कारण प्रतिदिन दुर्घटनाएं होती हैं। अभी तक सौ से भी अधिक लोग वृक्ष के कारण असमय ही काल कवलित हो चुके हैं। यदि जल्द यह वृक्ष नहीं कटा तो हम आमरण अनशन शुरू करेंगे, हड़ताल करेंगे और यातायात को बाधित कर देंगे।
अब वृक्ष वृक्ष ना रहा, एक अनुत्तरित प्रश्न बन गया-आस्था-अनास्था का प्रश्न, जीवन-मरण का प्रश्न, आस्तिकता-नास्तिकता का प्रश्न। इन यक्ष प्रश्नों के सलीब पर दोनों वर्ग के लोग झूल रहे थे। विवाद ने विष्फोटक रूप धारण कर लिया था। पीपल ने समाज को बारूद के ढेर पर बिठा दिया था। इसका समाधान दिखाई नहीं दे रहा था। विवाद को हल करने के लिए शासन की ओर से पीपल कार्रवाई समिति का गठन किया गया। देखादेखी वृक्ष समर्थकों ने पीपल रक्षा समिति बना दी और उसके बैनर के नीचे गोलबंद होने लगे। वृक्ष विरोधी कैसे पीछे रहते ? उन्होंने पीपल उन्मूलन समिति का गठन कर दिया। दोनों पक्ष की तलवारें निकल चुकी थीं। जो समाज सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन के नाम पर कभी संगठित नहीं हुआ, पीपल के नाम पर मरने-मारने के लिए आमादा था। वृक्ष समर्थकों के साथ पर्यावरणवादी भी मिल गए। इनका पक्ष और मजबूत हो गया। शासन की ओर से एक वरिष्ठ मंत्री की अध्यक्षता में पीपल वृक्ष कार्रवाई समिति गठित की गई थी। इस समिति में अध्यक्ष के अतिरिक्त दस सदस्य थे जो विभिन्न पार्टियों के विधायक थे। इस समिति को छह माह में अपनी रिपोर्ट देनी थी लेकिन छह महीने में वह रिपोर्ट नहीं दे सकी। फलस्वरूप छह महीने का अवधि विस्तार दिया गया। एक वर्ष के बाद समिति ने विधानसभा में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की लेकिन इस रिपोर्ट ने मामले को और पेचीदा बना दिया। समिति के सदस्यों के बीच भारी मतभेद था। पांच सदस्यों का विचार था कि पीपल को यथास्थान रहने दिया जाए। वृक्ष की सुरक्षा के लिए चारदीवारी बना दी जाए और सड़क को मोड़ दिया जाए। संभव हो तो राज्य के खर्च पर वृक्ष की पूजा -अर्चना के लिए एक पुजारी नियुक्त कर दिया जाए। समिति के चार सदस्यों ने इसका विरोध करते हुए अपनी टिप्पणी दी कि इस वृक्ष को अविलम्ब काट दिया जाए। यह वृक्ष सामाजिक सद्भाव और धर्मनिरपेक्षता के लिए बहुत बड़ा खतरा बन गया है, अतः यथाशीघ्र इसका उन्मूलन ही समाज और देश के हित में है। अध्यक्ष सहित दो सदस्यों का मत था कि वृक्ष को दूसरी जगह स्थानांतरित कर दिया जाए। स्थानांतरण के लिए ऐसी वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया जाना चाहिए कि वृक्ष की संवेदना आहत न हो। इसके लिए देश के उच्च स्तर के वैज्ञानिकों की एक परामर्श समिति बना दी जाए जो यह तकनीक बताएगी कि वृक्ष को जड़ सहित उखाड़कर दूसरी जगह कैसे स्थापित किया जा सकता है।
इस रिपोर्ट के बाद तो सदन स्थायी हंगामे का केंद्र बन गया। सदन को बताया गया कि एक वर्ष में पीपल वृक्ष कार्रवाई समिति पर सत्तर लाख रुपए खर्च हो चुके हैं। विवादास्पद रिपोर्ट की समीक्षा के लिए एक समीक्षा समिति गठित की गई जिसे तीन माह में अपनी रिपोर्ट देनी थी। इस बीच कुछ पर्यावरणवादियों ने उच्च न्यायालय में मामला दायर कर दिया। मामला संवेदनशील था। इसलिए इसकी सुनवाई के लिए तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की एक खंडपीठ बना दी गई। खंडपीठ में मामले की सुनवाई चलती रही-तारीखें पड़ती रही, बहस होती रही। सुनवाई अब भी जारी है।
वृक्ष जड़ वृक्ष नहीं था, पात्र बन गया था-किसी के लिए नायक, किसी के लिए खलनायक। विधानसभा में वृक्ष चर्चा ही छायी रहती, इसको लेकर काम रोको प्रस्ताव पारित किए जाते, सदन की कार्यवाही बाधित होती और पक्ष-प्रतिपक्ष के बीच नोक-झोंक, तर्क- वितर्क-कुतर्क चलते रहते। सदन ही नहीं बल्कि, आम और खास लोगों की बातचीत में भी वृक्ष की चर्चा छायी रहती। चुनाव के समय पीपल वृक्ष घोषणा पत्र बन गया। सभी दलों ने अपने -अपने घोषणा पत्रों के केंद्र में पीपल वृक्ष को रखा। वृक्ष समर्थक दलों ने मतदाताओं के बीच प्लास्टिक से बने पीपल के प्रतीक बांटे। एक दल ने तो अपना चुनाव चिह्न ही पीपल रख लिया। मतदाताओं में पीपल छाप कमीज बांटी गई। अब पीपल विज्ञापन बन गया था।
वृक्ष समर्थकों और विरोधियों में अभी भी वाद-विवाद जरी है। न्यायालय में सुनवाई चल रही है और सदन में तर्क- वितर्क-कुतर्क बदस्तूर चालू है।