भाव तो वही था
आज सुरेन का 90वां जन्मदिन है. इस बार भी पिछले 30 साल की भांति अपने जन्मदिन पर उसने अपनी छोटी-सी चंदन की संदूकची खोली. चंदन की इस संदूकची को वह बड़े जतन से कपड़े की एक थैली में सहेजकर रखता है. उसके जन्मदिन पर हर साल की भांति सभी लोग मौजूद हैं और ”सुरेंद्र जन्मदिन मुबारक हो” कहकर अभिनंदन कर रहे हैं. कोई नहीं है, तो बस उसके बड़े भाई, जो उसे सुरेन कहकर पुकारते थे. उनका साथ भी कुछ ही सालों का रह पाया था. फिर भी सुरेंद्र ने अपने बड़े भाई महेंद्र से बहुत कुछ सीखा था. भारत के विभाजन ने दोनों भाइयों को अलग-अलग कर दिया था. महेंद्र की सरकारी नौकरी थी. विभाजन से पहले ही उनका स्थानांतरण राजस्थान की राजधानी जयपुर हो गया था. सुरेंद्र को गुजरात की राजधानी अहमदाबाद में ठिकाना मिला. हर साल उसके जन्मदिन पर महेंद्र सपरिवार आते थे और कुछ दिन मज़े-मज़े में निकल जाते थे. 30 साल से यह सिलसिला टूटा था. उस साल उसके जन्मदिन पर महेंद्र भैय्या तो नहीं आ पाए थे, उनका यह भावभीना पोस्टकॉर्ड ज़रूर आया था. उसका कोना भी फटा हुआ नहीं था, पर भाव तो वही था. लिखा था- ”प्यारे सुरेन, मेरा यह आखिरी खत है. तुम सदा खुश रहो यही मेरी शुभकामना है.” सचमुच यह आखिरी खत हो गया था. उसी दिन एक मोटर साइकिल वाले ने उनको टक्कर मार दी थी और वे अस्पताल तक भी नहीं पहुंच पाए थे. यह कैसी अंतःप्रेरणा थी, कि जिस जन्मदिन वाले दिन उन्हें सुरेन के पास पहुंचना था, उनका खत पहुंचा. उन दिनों फोन की सुविधा तो थी नहीं, सो सुरेंद्र किसी तरह ट्रेन पकड़कर भैय्या के घर पहुंचा. उस समय उनके अंतिम संस्कार की तैयारी हो रही थी. उनको छोटे भाई का कंधा जो मिलना था.