संस्मरण

मेरी कहानी 185

कैलंगूट की हाई स्ट्रीट में आ कर हम दोनों तरफ के होटलों का ज़ायज़ा लेते जा रहे थे कि एक जगह हमारी नज़र पड़ी , बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था ” हवेली “, देखते ही हमें चहेड़ू के नज़दीक जीटी रोड पर बने प्रसिद्ध हवेली ढाबे की याद आ गई। खुल्ले में मेज कुर्सियाँ लगे हुए थे। काफी खुली जगह थी। एक तरफ एक हलवाई कुछ तल रहा था। ढाबे का मालिक जो चालीस पैंतालीस वरष का पंजाबी ही था, हमारे पास आ गया और हमें बैठने के लिए कहने लगा कि वोह हमें मच्छी के पकौड़े बना के खिलायेगा। उस की बात से प्रभावित हो कर हम एक बड़े से टेबल पर आ गए। वैसे भी यह खुल्ला सा आँगन हमें बहुत अच्छा लगा। कुछ लोग पहले भी बैठे हुए थे और खा पी रहे थे। चार पांच बजे का वक्त होगा और गर्मी भी थी लेकिन इतनी नहीं कि असहनीय हो। फिश पकौड़े, शाकाहारी पकौड़े और समोसे उसी नौजवान ने हमारे टेबल पर रख दिए। इस में कोई शक नहीं कि चटनियों के साथ यह बहुत मज़ेदार लग रहे थे। तरसेम हंस पड़ा और बोला,” यह जो पकौड़े हम खा रहे हैं, उन का असर तो मच्छरों पर ही हो रहा है “, तरसेम की बात पर हंसी आ गई क्योंकि टेबल के नीचे मच्छर नंगे पैरों और टांगों को काट रहे थे। जसवंत ने उस शख्स को आवाज़ दी और उस को कहा कि यहां तो मच्छर बहुत हैं। वोह शख्स कुछ देर बाद एक मट्टी का बर्तन जो ऊपर से खुल्ला था, उस में कोयले डाल कर ले आया। पता नहीं उस में किया डाला, टेबल के नीचे हल्का हल्का धुआं हो गया और साथ ही मच्छर देवते भी कहीं भाग गए। अब जसवंत ने तीन विस्की का आर्डर दे दिया। विस्की पीते पीते मूड बन गया और खाने का भी एक और आर्डर दे दिया। वोह हवेली का मालिक हमारे पास आ के बातें करने लगा। बातें करते करते उस ने बताया कि आज रात को उस के होटल में “पंजाबी नाइट” का प्रोग्राम होना था, जो हफ्ते में एक दिन होता है। यह सुन कर हम ने उसी वक्त फैसला कर लिया कि आज रात को इस पंजाबी नाइट का मज़ा लेंगे। ज़्यादा हम ने अब खाया नहीं और कुछ देर बाद हम उठ खड़े हुए और होटल में आ गए।
9 बजे तैयार हो कर हम हवेली में पंजाबी नाइट का लुत्फ लेने चल पड़े। अब बैठने का इंतज़ाम होटल के अंदर था जिस का मुंह दाईं सड़क की तरफ था । एक बड़े दरवाज़े से हम भीतर चले गए। कुछ घंटे पहले हम खुल्ले में बाहर के टेबलों पर बैठे थे, लेकिन यह हिस्सा उस के पीछे की ओर था। जब हम दाखिल हुए तो पहले ही बहुत लोग वहां बैठे बीअर का मज़ा ले रहे थे, जिन में तकरीबन आधे गोरे गोरीयाँ और आधे पंजाबी थे जो दूसरे होटलों से आये हुए थे। रंग बिरंगी रौशनियों से होटल जग मग, जग मग कर रहा था। एक तरफ टेबलों पर तरह तरह के स्टार्टर खाने रखे हुए थे और यह सैल्फ सर्विस थी। अपनी अपनी प्लेट भर के हम एक टेबल के इर्द गिर्द बैठ गए। यह हिसा भी ऊपर से खाली आसमान ही था लेकिन मेंन मील के लिए इस की एक तरफ बहुत बड़ा कमरा था। इस खुल्ले हिस्से में एक बड़ा सा बृक्ष भी था, जिस के ऊपर भी रंग बिरंगे बल्व लग्गे हुए थे और साथ में ही एक मयूजिक सेंटर भी रखा हुआ था, जिस पर गाने बज्ज रहे थे। कभी कभी होटल मालक, वो ही लड़का माइक पर कुछ कुछ अनाऊंसमैंट भी करने लगता। कोई एक घंटे बाद जब सब लोग बातों में मगन थे तो होटल मालक बोला कि अगर किसी ने कोई भी गाना गाना हो तो वोह यहां आ कर सुना दे। साज़ बगैरा कोई नहीं था, बस यूँ ही साज़ के बगैर गाना था। एक अँगरेज़ औरत उठी और उस ने एक इंग्लिश गाना सुनाया। ज़्यादा समझ तो नहीं आया लेकिन गाया उस ने बहुत अच्छा। सब ने तालियां बजाईं। एक ने हिंदी में किसी फिल्म का गाना सुनाया, यह भी बहुत अच्छा था। इस के बाद कोई नहीं उठा। कुलवंत और जसवंत मुझे जोर देने लगे कि मैं भी सुनाऊँ। मैं कुछ हिचकिचा रहा था लेकिन कुछ देर बाद मैंने विस्की का एक घूँट पिया और उठ कर माइक हाथ में पकड़ लिया। सोच सोच कर मैं पंजाबी का एक बहुत ही पुराना गाना गाने लगा, यह गाना बचपन में बहुत सुना करता था और शायद ही किसी ने अब सुना हो। मैं गाने लगा, ” लड़की बोलती है, ओ चन्ना, मैं दोवें हथ बना, न मल्ल खूह दा बन्ना, घड़ा मैंनूं भर लेन दे, अब लड़का बोलता है, ओ बल्ले, घड़ा रख थल्ले, कि आपां दोवें कल्ले कि बुल्ले सानूं लुट लेन दे “, सारा गाना तो मुझे आता नहीं था लेकिन इतने पर ही सबी ने जोर जोर से तालियां बजा दीं। कुछ देर बाद सबी पंजाबी गानों पर भंगड़ा डांस करने लगे। आधी रात तक यह काम चलता रहा और फिर धीरे धीरे उठ कर सबी पास के हाल कमरे में जाने लगे। यहां भी खाना टेबलों पर रखा हुआ था, हर कोई प्लेट पकडे लाइन में आगे आगे जा रहा था और टेबलों के पीछे खड़े वेटर प्लेटों में खाना डाल रहे थे। आधे घंटे में खाना खा कर हम वापस होटल में आ गए। हवेली की पंजाबी नाइट भी एक याद ही रह गई क्योंकि इस हवेली में अब नए दोस्त बन गए थे, जिन के साथ कभी कभी हमारा मिलन हो जाता था।
सुबह देर से उठे। टैक्सी वाले को कुछ देर से आने को बोल रखा था, इस लिए हमें कोई जल्दी नहीं थी। दो लड़के हमारे कमरे में आ गए और हमें पूछने लगे कि कोई कपडे धोने वाले हों तो उन्हें दे दें। हमारे कपडे भी अब कुछ गन्दे हो गए थे क्योंकि हमें आये काफी दिन हो गए थे और वैसे भी गोवा में कुछ गर्मी थी। सभी ने उन को कपडे दे दिए। अब नहा धो कर कैंटीन में चले गए और सिर्फ कॉर्नफ्लेक्स ही लिए क्योंकि पिछले दिन और रात को काफी खाया था और इस को बैलेंस करने के लिए हल्का भोजन ही लिया। कैंटीन में बैठे बैठे ही हम ने टैक्सी वाले से बात की और उस ने बता दिया कि कुछ मिनटों में ही वोह होटल के सामने इंतज़ार करेगा। बातें करते करते हम उठ खड़े हुए और सड़क पर आ गए। ज़्यादा देर इंतज़ार करना नहीं पड़ा और टैक्सी वाला आ गया और उस को अगुआडा फोर्ट जाने को बोल दिया। अगुआडा फोर्ट कैंडोलिम के नज़दीक ही है और अरब सागर के किनारे बना हुआ है। कुछ कुछ हम ने गाइड बुक में पड़ा हुआ था। कोई आधा घंटा वहां पहुँचने में लग गया। गाड़ी पार्क करके हम किले की तरफ चलने लगे जो हमारे सामने ही था। कुछ मिनटों में हम किले की दीवार के नज़दीक पहुँच गए। किले की दीवार के साथ साथ एक खाई थी जो अक्सर हर किले के इर्द गिर्द होती ही थी। इस खाई के साथ साथ लोहे की रेलिंग लगी हुई थी ताकि इस में कोई गिर ना जाए। याद नहीं इस किले को देखने का टिकट था या नहीं, मुख दुआर से हम भीतर चले गए। यह किला मुगलों के किले से बहुत भिन्न था क्योंकि यहां कोई महल या चर्च नहीं था। कोई डैकोरेशन कहीं भी नहीं थी।
किले के भीतर एक खुल्ला सा मैदान था जिस की एक कॉर्नर में लाइट हाऊस था। यह किला पुर्तगालियों ने गोवा में आने के तकरीबन एक सौ साल बाद बनाया था। इस का मकसद सिर्फ डिफैंस था या यूरप से आने वाले जहाजों के लिए था। यह किला आने वाले जहाजों के लिए पानी प्रदान करता था, इसी लिए इस को अगुआडा किला बोलते हैं क्योंकि पुर्तगाली भाषा में अगुआडा पानी को बोलते हैं। इस में लाखों लीटर पानी जमा किया जा सकता था। साथ में लाइट हाऊस भी जहाज़ों के लिए बनाया गया था। पुर्तगालियों ने यह किला इस लिए भी बनाया था कि यह डच और मरहटों के हमलों से भी बचाता था। हैरानी होती है कि युरपीयन लोग आपस में ही मंडियों के लिए शतुरता रखते थे। इसी लिए तो इंडिया में भी अँगरेज़ फ्रैंच पुर्तगाली डच आपस में लड़ते रहे। मंडियों और कलोनीआं बनाने के लिए कहाँ कहाँ यह युरपीयन लोग लड़ते रहे, हैरानी वाली बात है। इसी लिए तो अँगरेज़ इंडिया पर काबिज़ हो गए क्योंकी इन लोगों का तो बहुत तज़ुर्बा था। साथ ही यह लोग वियोपारी थे। जितनी देर किसी देश से इन को मुनाफा होता रहा, उतनी देर इन्होंने राज किया, जब देखा कि कोई फायदा नहीं तो छोड़ कर आ गए।
अगुआडा किला गोवा में पुर्तगालियों के लिए एक ऐसी दीवार थी जिस को पर करना आसान नहीं था। उस समय मरहठे भी बहुत ताकतवर थे और एक तरफ मुसलमान हुक्मरान थे। इस किले में कोई 80 तोपें रखी हुई थीं और बहुत बड़ा बारूदखाना था। इस में लड़ाई का सारा इंतज़ाम किया गया था, यहां तक कि लड़ाई के समय कोई बिपता आन पड़े तो उस के लिए इस किले में एक चोर दरवाज़ा था जो एक सुरंग की और खुलता था। इस किले से आर्थिक लाभ भी होता था क्योंकि यूरप से आते जहाज़ यहां पानी भरते थे और लाइट हाऊस उस समय हर सात मिंट बाद जहाज़ों को लाइट देता था और बाद में यह हर आधे मिंट बाद लाइट देने लगा था। उस समय एशिया का यह सब से बड़ा लाइट हाऊस था। जब हम इस किले में घूम रहे थे तो बहुत लोग इधर उधर घूम रहे थे। यह एक खुल्ला सा मैदान लग रहा था और बड़ी बड़ी दीवारों से घिरा हुआ था और कुछ लोग इन दीवारों पर चढ़ के नज़ारा देख रहे थे। उन को देख कर हम भी दीवार पर चढ़ गए और फोटो लेने लगे। फिर हम ने लाइट हाऊस को देखने का मन बना लिया। इस के लिए टिकट लेना था और लाइन लगी हुई थी। यहां टिकट लिए, यह तो मुझे याद है लेकिन किले के मुख दुआर पर टिकट लिए या नहीं, यह याद नहीं। लाइट हाऊस के भीतर दाखल हुए तो गोल दायरे में सीडीआं ऊपर को जा रही थी। यह चार मंजला टावर था। जब ऊपर पहुंचे तो मध्य में बहुत बड़ा गोल दायरे में लैम्प की चिमनी जैसा शीश लगा हुआ था, जिस के बीच रौशनी देने के लिए बल्व जैसी कोई चीज़ थी जो अब याद नहीं रहा कि क्या थी। खैर, लाइट हाऊस के ऊपर भी ज़िन्दगी में पहली दफा चढ़ कर देखा। कुछ मिंट ही ठहरे क्योंकि ज़्यादा देर खड़े होना कोई माने नहीं रखता था। बस यह भी एक याद ही बन गई क्योंकि इस से पहले ना कोई लाइट हाऊस देखा था और ना ही बाद में देखने का अवसर मिला।
इस किले से नीचे अरब सागर की लहरे दिखाई देती थीं। यहां से नीचे पानी की ओर देख कर अजीब घबराहट सी मुझे हो रही थी, पता नहीं क्यों। जब हम घूम रहे थे तो हमारे ड्राइवर ने बताया था कि यहां अंग्रेजों ने भगत सिंह को कैद करके रखा था लेकिन बाद में मुझे खियाल आया कि यह सही नहीं हो सकता क्योंकि गोवा पर तो पुर्तगेज़ों का राज था। हो सकता है उस को कुछ गलत फहमी हो। यह बात सही है कि यहां सालाजार के ज़माने में पोलिटिकल कैदियों को रखा जाता था जो उस की हकूमत के खिलाफ थे। क्योंकि सालाजार एक डिक्टेटर था इस लिए पुर्तगाल में जो लोग उस के खिलाफ थे, उन को इस अगुआडा किले में कैद करके रखा जाता था। कुछ देर और घूम घाम के हम वापस चल पड़े। होटल में आ कर कुछ आराम किया, चाय बगैरा पी और मैं जसवंत और तरसेम फिर बाहर को चल दिए। होटल के बाहर आये तो एक टैक्सी ड्राइवर लॉटरी वाले स्क्रैच कार्ड बाँट रहा था। हम तीनों ले लिए और तरसेम की लॉटरी निकल आई जो कि एक वाइन बोतल थी और साथ में शिरी लंका की हॉलिडे ऑफर थी। टैक्सी वाले को स्क्रैच कार्ड दिखाया तो वोह झूम उठा और हमें टैक्सी में बैठने को कहा कि वोह हमें फ्री में उस होटल में ले जाएगा जिस की ओर से यह कार्ड बांटे गए थे। चलता ………………