गीतिका/ग़ज़ल

” हुआ है “

सारा आलम जाने क्यूं “ग़मगीन” हुआ है,
हवाओं से ज़ुर्म कोई “संगीन” हुआ है !

रंग नहीं ये होली का, ज़रा गौर से देखो,
फिर मेरा शहर आज, लहू से “रंगीन” हुआ है !

जमूरों अपने नचाते, सिखाते,
मदारी खुद यहां तमाशबीन” हुआ है !

दो बूंद भी मयस्सर नहीं, अब मेरे लिये वहां,
साकी जबसे मैखाने का “शौकीन” हुआ है !

पंखों में ग़र दम है, तो ही छू सकेगा ” जय”,
वो आसमां कब किसके लिये “ज़मीन” हुआ है !
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*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से