ग़ज़ल
जब की खुद हमने बढाई है मुसीबत अपनी,
आओ खुद से ही करी जाए शिकायत अपनी।
वक्त बदला भी तो किस काम का अपने यारों,
बद से बदतर ही हुई जाए है हालत अपनी।
लाख फिर मंज़रे – हाज़िर की गिरी सूरत हो,
देखना वो ही हमें है जो है चाहत अपनी।
बस कि चुपचाप सहो, कुछ न कहो उनको तुम,
जो करो उज्र तो फिर जाए है इज़्ज़त अपनी।
फिर कहीं मौत ने घर लूट लिया मुफलिस का,
फिर नयी शक्ल दिखाएगी सियासत अपनी।
कब तलक हमको सताएगा तग़ाफ़ुल उनका,
कब तलक ‘होश’ न जागेगी ये ग़ैरत अपनी।
मंज़रे-हाज़िर – वर्तमान ; उज्र – ऐतराज़, विरोध
तग़ाफ़ुल – उपेक्षा ; ग़ैरत – स्वाभिमान