कविता : प्रशंसा
प्रशंसा सुनकर
लोग फूलकर कुप्पा होजाते हैं
एक क्षण में
अपनी औकात भूल जाते हैं।
चलते हैं जमीन पर
सोचते हैं आकाश की
पल से पल में ही
क्या से क्या हो जाते हैं।
प्रशंसा एक बला है,पर
अपने आप में एक कला है
प्रशंसा ने बड़े-बड़े गुल खिलाए
दिन में ही तारे दिखाए।
मूर्ख को पंडित बनाती प्रशंसा
पंडित को उल्लू बनाती प्रशंसा
दिल की कली खिलाती प्रशंसा
पल में आँसू सूखाती प्रशंसा ।
तुम भी
प्रशंसा का बाण चलाओ
प्रशंसक बन निशाना लगाओ
कांटे हटाकर गुलाब खिलाओ।
दुनिया में आए तो कर कुछ दिखाओ।
— सुधा भार्गव