क्या बंद होनी चाहिए बंद की सियासत?
जब से प्रधानमंत्री जी ने 500 तथा 1000 रूपए के पुराने नोट बंद करने की घोषणा की है सियासत अपने यौवन पर है । किसी भी राजनीतिक मुद्दे पर खुद को अलग रखने वाला आम आदमी भी चुप बैठने को तैयार नहीं है । देश की दृष्टिकोण से देखे तो यही लोकतंत्र की सुंदरता है और सुखद बदलाव है । अब जनता मौन नहीं है अपनी विचार व्यक्त कर रही है । यह विचार सत्ताधारी सरकार के पक्ष में हो या फिर उसके विरोध में हो लेकिन चाहे चौक चौराहे हो या फिर सोशल मीडिया ही क्यों न हो आम लोग अपने विचार से देश की सरकार को अवगत करवाने की पुरजोर कोशिश कर रहे है । हर पक्ष और विपक्ष के अपने तर्क है और हर तर्क के पीछे कोई न कोई सार्थक कारण है ।चाहे भले पक्षधर लोग सिर्फ देश की बात कर रहे है वही विपक्षी सिर्फ नोटबंदी से आम आदमी को होने वाली मुश्किल तक सीमित है । लेकिन चुकि मैं देश को सर्वोपरि मानता हूँ इसलिए नोटबंदी का पक्षधर हूँ । लेकिन कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि कितना अच्छा होता अगर सरकार ने यह साहसी फैसला पूरे इंतजाम और मुकम्मल तैयारी से किया होता तो आज जो विपक्ष को कुछ कहने का मौका मिल रहा वो चारो खाने चित हो जाते ।
खैर जो होना था हुआ और जो बाकी है हो रहा है धीरे धीरे हालत सुधर रही है और राजनीतिक रूप से तो यह वक्त ही बताएगा की ऊँट किस करवट बैठेगा । जब विभिन्न प्रांत में विधान सभा के चुनाव के नतीजे आएंगे या फिर जब 2019 के लोक सभा के चुनाव का नतीजा आएगा । लेकिन देशहित में यह फैसला बहुत शानदार है इससे इंकार नहीं किया जा सकता है ।
हर बार की तरह विपक्षी पार्टी को सत्तापक्ष का विरोध करना ही था और वो कर भी रहे है । लोकतंत्र में किसी फैसले या नीति का विरोध होना भी चाहिए अगर विरोध सकारात्मक हो क्योकि विपक्ष का विरोध ही सत्तापक्ष को हमेशा चंगुल पर खड़ा रखता है लेकिन जो बात विचारणीय है वह यह कि आखिर उस विरोध का तरीका क्या हो ?
ऐसे तो देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है । हर किसी के विरोध का अपना तरीका और तर्क है । कई लोगों का यह भी तर्क रहता है कि गांधी जी ने भी कई बार बंद का समर्थन किया था तो हम क्यों न करे ? लेकिन उन्हें यह भी समझना चाहिए कि तब हमारी लड़ाई अंग्रेज से थी जिसे हम भगाना चाहते थे लेकिन अब यह हमारे देश की चुनी हुई सरकार है जिससे अगर हम खुश नहीं तो अगले चुनाव में उसे बस रास्ता दिखाना है लेकिन फिर प्रश्न है कि क्या देश के द्वारा चुनी सरकार का विरोध भारत बंद , किसी राज्य या शहर में बंद कर करना उचित होगा ? जबकि इस तरह के बंद के आयोजन से हम अपने ही देश का नुकसान करते है।
एक भी दिन का बंद न सिर्फ देश का आर्थिक रूप से करोड़ों का नुकसान करवाता है । साथ ही आम आदमी की रोज़मर्रा की जिंदगी भी प्रभावित होती है । दफ्तर पहुंचने की कवायद तो बहुत साधारण सी बात है लेकिन न जाने कितने लोग बंद वाले दिन समय पर अस्पताल नहीं पहुंच पाते है । वैसी स्त्री की कल्पना कीजिए जिसे प्रसूति हेतु अस्पताल ले जाना आवश्यक हो लेकिन बंद के कारण वाहन की अनुपलब्धता हो । कोई इंसान किसी नये शहर में किसी आवश्यक कार्य हेतु पहुंचा हो और उसे बंद का सामना करना पड़े ।किसी के घर कोई पारिवारिक कार्यक्रम जैसे विवाह आयोजित हो और ठीक उसी दिन बंद का ऐलान हो जाए । कोई छात्र किसी नौकरी हेतु साक्षात्कार हेतु रवाना हुआ हो और आधे रास्ते ट्रेन या बस रोक दी जाए । क्या ऐसे किसी कृत्य से चाहे वो किसी भी मुद्दे का विरोध के लिए हो और चाहे देश के किसी भी दल ने इसे आयोजित किया हो या समर्थन दिया हो , क्या इसे स्वीकार किया जा सकता है ?
अगर पिछले दिनों नोटबंदी के विरोध में बंद के आयोजन जैसे ज्वलंत मुद्दे का अवलोकन करे तो विपक्ष इस बंद पर तीन हिस्सों में बटा था । कांग्रेस और आप पार्टी बंद तो आयोजित करना चाहती थी लेकिन जनता का अप्रयाप्त समर्थन को भांपते हुए अपने विरोध को बस मार्च तक सीमित रखा , दूसरी थी वाममोर्चा , जिसे कायदे से इस नोटबंदी के फैसले के साथ खड़ा रहना चाहिए लेकिन अपनी बुनियादी सिद्धांत जिस पर सारा वामपंथी विचार धारा निर्भर है ” पूंजीवाद का विरोध , उसके इतर नोटबंदी का न सिर्फ विरोध किया बल्कि अकेली ऐसी पार्टी रही जिसने नोटबंदी के खिलाफ 12 घंटे का संपूर्ण बंद का ऐलान किया । ज्यादा पीछे की बात नहीं है बस कुछ साल पहले जब पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार थी , पार्टी द्वारा किसी बंद का ऐलान पर दफ्तर से लेकर बाजार खुद ब खुद बंद हो जाते थे । किसी कोशिश की जरूरत नहीं होती थी । आम आदमी एक दिन पहले ही घर का उपयोगी खाद्य सामग्री जुटा लेता था । यहाँ तक की गली मुहल्ले के छोटे छोटे दुकान भी अपने आप बंद हो जाते थे । लेकिन इस बार बंद के ऐलान के बाद भी हालात समान्य थे । वाममोर्चा का यह बंद शत प्रतिशत विफल रहा , एक तरह से कहूँ तो पश्चिम बंगाल में जनता ने वामपंथियों को एक आईना दिखाया है कि अब यह सिद्धांत विहीन निर्णय और नीति के साथ जनता बिल्कुल खड़ी नहीं है और उसका पुरजोर विरोध करती है । लेकिन इस नोटबंदी विरोध के मुद्दे पर , मुखर विरोध के बावजूद अगर किसी व्यक्तित्व , विचार , नीति और दल ने साकारात्मक राजनीति की पहल की है तो वो है पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री तथा तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा ममता बनर्जी । नोटबंदी को लेकर जहाँ ममता बनर्जी के विरोध के स्वर शुरू सिर्फ तीखे ही नहीं रहे बिल्कुल एक से रहे । वो बाकी दलों और राजनेताओं की तरह समय के साथ अपने बयान नहीं बदलती रही । लोकतंत्र में वैचारिक मतभेद होना संभव ही है लेकिन भारत बंद के मुद्दे पर ममता बनर्जी का कदम चौकाने वाला लेकिन बेहद सकारात्मक था । वाममोर्चा को पहली बार उम्मीद थी कि शायद ममता बनर्जी मोदी विरोध के नाम पर बंद के आह्वान के बाद साथ आ जाएंगी लेकिन ममता बनर्जी ने जैसे नोटबंदी का पुरजोर विरोध किया ठीक उसी तरह भारत बंद का भी पुरजोर विरोध किया । यहाँ तक की दफ्तर में नहीं पहुंचने वाले सरकारी कर्मचारियों के वेतन काटने तक की बात कह डाली । जबकि ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस को आज की तारीख में पश्चिम बंगाल में जिस तरह का समर्थन प्राप्त है उनके बस एक ऐलान पर पश्चिम बंगाल का बंद होना निश्चित था । यहाँ भाजपा के संगठन की भी अगर तुलना तृणमूल कांग्रेस से करे तो पश्चिम बंगाल में भाजपा अभी तृणमूल से काफी पीछे है लेकिन इस सबके बावजूद देशहित और आम आदमी को ध्यान में रखते हुए ममता बनर्जी का भारत बंद का समर्थन नहीं किया यह एक बेहद सकारात्मक राजनीतिक निर्णय था जिसकी न सिर्फ भूरी भूरी प्रशंसा होनी चाहिए अपितु देश के सभी दल ( जिसमे सत्ताधारी दल भाजपा भी शामिल है ) और राजनेताओं को अपनी दलगत फायदे से उपर उठ कर देशहित में किसी भी मुद्दे पर बंद करवाने की नीति से बचना चाहिए । ऐसे में कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि देशहित में बंद होनी चाहिए बंद की सियासत ।
अमित कु अम्बष्ट ” आमिली ”