भाषा-साहित्य

आर्यसमाज के दो अग्रणीय प्रकाशक ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ और ‘श्री घूड़मल प्रह्लाद कुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिंडौन सिटी’

ओ३म्

आर्यसमाज वेदों के पुनरुद्धार और विश्वव्यापी प्रचार का एक मात्र आन्दोलन है जिसका शुभारम्भ महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) द्वारा मथुरा के अपने विद्यागुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से वेदों के व्याकरण अष्टाध्यायी-महाभाष्य पद्धति से अध्ययन कर सन् 1863 में आरम्भ किया गया था। यह कार्य इतना महान एवं विशाल है कि जिसकी तुलना में अन्य कोई कार्य नहीं हो सकता। एक प्रकार से वेद प्रचार आन्दोलन मनुष्य को मनुष्य ही नहीं अपितु मनुष्य को ईश्वरभक्त, वेदभक्त, देवता, ऋषि, मुनि, विद्वान, सदाचारी, गुणवान, सेवाभावी, परोपकारी आदि अनेकानेक गुणों से सुभूषि बनाने का आन्दोलन है जिसमें मनुष्य के सभी दुर्गुर्णों को दूर कर उसके स्थान पर सद्गुणों के आधान का का प्रयोजन है। ऐसा महान उद्देश्य अन्य किसी सामाजिक व राजनीतिक संगठन का न कभी रहा है और न भविष्य में होने की ही आशा है। महर्षि दयानन्द की सन् 1883 में विरोधियों के विषपान से मृत्यु के कारण इस आन्दोलन को धक्का लगा। उनके अनुयायियों ने आन्दोलन की बागडोर सम्भाली और आन्दोलन को तेजी से आगे बढ़ा। आर्यसमाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने ही देश में सबसे पहले ‘‘स्वराज्य” व ‘‘सुराज्य” की बात की थी। अपने विश्व के श्रेष्ठतम ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” में उन्होंने लिखा है कि ‘जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है।‘ वह यह भी कहते हैं कि ‘मत-मतान्तर के आग्रह से रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायक नहीं (हो सकता) है।’ इन पंक्तियों को पढ़कर हमें लगता है कि महर्षि दयानन्द ने अपने सभी अनुयायियों व देशवासियों को स्वदेशी राज्य स्थापित करने हेतु सबसे पहले आन्दोलन करने की प्रेरणा की थी। उनके दो प्रमुख शिष्य पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा महादेव गोविन्द रानाडे, पुणे को उनके इन स्वप्नों को साकार करने का सर्वप्रथम प्रयत्न करने का श्रेय है और आगे चलकर देश में जो क्रान्तिकारी और अहिंसात्मक आन्दोलन चले उनके आद्य नेता भी यह दो महापुरुष ही थे।

महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन में उपदेश व प्रवचनों के द्वारा प्रचार किया था। उन्होंने अनेक मतों के अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ व शास्त्र चर्चायें भी कीं, जो कि वेदों के प्रचार में सहायक थीं। ऋषि दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय आदि उनके शिष्य बने जिन्होंने वैदिक धर्म के प्रचार को आगे बढ़ाया। मौखिक उपदेश, प्रवचन व शास्त्रार्थ के अतिरिक्त ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय एवं ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य आदि अनेक ग्रन्थों की रचना कर उनको प्रकाशित कराया जो प्रचार में प्रभावशाली स्थाई साधन सिद्ध हुए। आज उनकी अनुपस्थिति में उनके ग्रन्थों द्वारा ऋषि दयानन्द ही वेदों का प्रचार करते हुए दिखाई देते हैं। ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश का पहला संस्करण मुरादाबाद के राजा जयकृष्णदास जी ने प्रकाशित कराया था। उसका संशोधित संस्करण ऋषि दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित वैदिक यन्त्रालय से मुद्रित होकर उनकी मृत्यु के कुछ काल बाद प्रकाशित हुआ। ऋषि दयानन्द के अन्य सभी ग्रन्थ भी समय-समय पर इसी यन्त्रालय से प्रकाशित होते आ रहे हैं। ऋषि दयानन्द की मृत्यु के पश्चात लाहौर के उनके अनुयायी महाशय राजपाल ने ‘‘राजपाल एण्ड संस” नाम से प्रकाशन संस्थान स्थापित किया जहां से महर्षि दयानंद व आर्य विद्वानों के ग्रन्थों के हिन्दी व उर्दू ग्रन्थों के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। सन् 1923 में मिर्जाईयों ने एक कुख्यात पुस्तक ‘उन्नीसवीं सदी का महर्षि’ का प्रकाशन किया जिसमें महर्षि दयानन्द के जीवन व चरित्र पर मिथ्या दोषारोपण किया गया था। आर्यसमाज के विद्वान पं. चमूपति जी ने इन आक्षेपों के प्रतिवाद में एक पुस्तक लिखी जिसका प्रकाशन महाशय राजपाल जी ने किया। इस पुस्तक के विरोध में राजपाल जी पर मुकदमें चले जिसमें वह विजयी हुए। इसके बाद एक नेता ने भड़काऊ बयान दिया जिससे मिर्जाई भड़क गये। उन्होंने पुस्तक के विरोध में महाशय राजपाल जी की हत्या करा दी। बाद में इस संस्थान का आर्य साहित्य के प्रकाशन कार्य मन्द पड़ गया।

सन् 1925 में ऋषि दयानन्द के कोलकत्ता निवासी अनुयायी श्री गोविन्दराम जी ने आर्यसमाज के साहित्य के प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया। श्री गोविन्द राम जी महान गोभक्त श्री हासानन्द जी के सुपुत्र थे। हासानन्द जी ने गोरक्षा हेतु मथुरा-वृन्दावन मार्ग पर एक विशाल गोचर भूमि न्यास की स्थापना कर महान कार्य किया जहां बूढे गोवंश को रखकर उनकी रक्षा व पालन किया जाता है। आज भी यह संस्था गोरक्षा के क्षेत्र में योगदान कर रही है। गोविन्दराम जी ने आर्यसमाज का प्रचुर साहित्य प्रकाशित कर अपने समय में एक रिकार्ड कायम किया। उनके दिवंगत होने के बाद प्रकाशन का कार्य उनके सुपुत्र कीर्तिशेष श्री विजय कुमार जी (1932-1991) ने सम्भाला और प्रकाशन को बुलन्दियों पर ले गये। दिनांक 30-12-1991 को विजयी जी की मृत्यु होने पर उनके सुपुत्र श्री अजय आर्य जी ने प्रकाशन का कार्य सम्भाला और एक के बाद एक भव्य प्रकाशन कर आर्यसमाज के प्रकाशन जगत में एक नया इतिहास रच डाला। आपने ऋषि दयानन्द सहित प्रमुख आर्य विद्वानों के ग्रन्थों व ग्रन्थावलियों  का प्रकाशन किया। आज भी यह संस्थान नियमित रूप से अनेक नये व पुराने महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रकाशन कर रहा है। आर्यसमाज ने विगत 91 वर्षों में वेद प्रचार के क्षेत्र में जो प्रगति की है उसका श्रेय सन् 1925 में स्थापित ‘गोविन्दराम हासानन्द प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित आर्य साहित्य को भी जाता है। आर्य जगत सदैव इस प्रकाशन संस्था के संचालकों का आभारी रहेगा।

वर्तमान में आर्यसमाज के साहित्य के एक अन्य प्रमुख प्रकाशक श्री प्रभाकर देव आर्य, हिण्डोन सिटी हैं जो अपने पिता श्री घूड़मल प्रह्लाद कुमार आर्य के नाम से न्यास स्थापित कर प्रकाशन करते हैं। आपने भी प्रकाशन के क्षेत्र में विगत 20-25 वर्षों में क्रान्ति की है। आपने ऋषि दयानन्द और आर्य विद्वानों के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों के अनेक संस्करण प्रकाशित कर वेद प्रचार ककार्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। जिस कारण आप आर्यसमाज के इतिहास में अपना मुख्य स्थान बना लिया है। आपने एक महत्वपूर्ण कार्य यह भी किया है कि आर्यसमाज के वेदभाष्यकार पं. हरिशरण सिद्धान्तालंकार जी का चारों वेदों का हिन्दी भाष्य अनेक खण्डों में प्रकाशित किया है। पुराने व नये विद्वानों के अनेक ग्रन्थ व ग्रन्थावलियां, जो अप्राप्य थे, उनका भी आपने प्रकाशन किया है जिससे पाठकों को इन दुर्लभ ग्रन्थों के दर्शन करने का सौभाग्य मिला है। आर्यसमाज के अन्य प्रकाशकों में आर्य प्रकाशन, दिल्ली का भी महत्वपूर्ण योगदान है। आपने भी प्रभूत साहित्य का प्रकाशन किया है। इस प्रकाशन संस्था की स्थापना श्री तिलक राज जी ने की थी जिसका निर्वाह वर्तमान में उनके सुपुत्र योग्यतापूर्वक कर रहे हैं। आर्यजगत के अन्य मुख्य प्रकाशकों में रामलाल कपूर ट्रस्ट (रेवली-सोनीपत), आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली, गुरुकुल झज्जर, दयानन्द संस्थान दिल्ली, स्वामी सत्यानन्द नैष्ठिक झज्जर, अमरस्वामी प्रकाशन विभाग गाजियाबाद आदि का नाम उल्लेखनीय है। सभी प्रकाशक आर्य समाज के अनुयायियों द्वारा प्रशंसा के पात्र हैं।

हमें इस वर्ष 4-6 नवम्बर, 2016 को ऋषि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा द्वारा अजमेर में आयोजित ऋषि मेले में जाने का अवसर मिला। यहां आर्यजगत के सभी प्रमुख प्रकाशकों ने अपने अपने प्रकाशनों की बिक्री हेतु स्टाल लगाये हुए थे। हम 5 नवम्बर, 2016 को विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली के स्टाल पर बैठे थे। हमारी दृष्टि सामने से आते हुए श्री प्रभाकरणदेव आर्य, हिण्डोन सिटी पर पड़ी। हम उन से मिले और स्टाल पर बैठ कर श्री अजय आर्य साहित परस्पर वार्तालाप किया। श्री प्रभाकरदेव आर्य जी ने एक ग्रन्थ दृष्टान्त सागर भी वहां से क्रय किया। हमने वार्तालाप के मध्य आर्यजगत के दो प्रमुख प्रकाशकों एवं इतिहास पुरुष श्री अजय आर्य जी और श्री प्रभाकरदेव आर्य जी के चित्र भी लिये। इन चित्रों सहित अन्य कुछ चित्रों को आज हम इस लेख द्वारा साझा कर रहे हैं। श्री अजय आर्य और श्री प्रभाकरदेव आर्य जी के चित्रों का विशेष महत्व है और कालान्तर में भी होगा। हम आशा करते हैं कि हमारे यह दोनों प्रकाशक परस्पर मित्रता एवं सहयोग करते हुए दीर्घकाल तक प्रकाशन के क्षेत्र में डटे रहेंगे, जिससे आर्यसमाज के प्रचार व प्रसार में विशेष बल मिलेगा। इन्हीं पंक्तियों के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य