मनुष्योन्नति के लिए असत्य एवं पाखण्ड का खण्डन आवश्यक है –
ओ३म्
मनुष्योन्नति का मूल मन्त्र क्या है? यह ‘सत्यं वद धर्मं चर’ ही सिद्ध होता है। यदि मनुष्य सत्य का आचरण न कर असत्य का आचरण करता है तो क्या उसकी उन्नति हो सकती है? इसका उत्तर है कि ऐसे मनुष्य की उन्नति नहीं अपितु पतन ही होगा। मनुष्य अपने अज्ञान, पूर्वाग्रहों व स्वार्थ आदि के कारण असत्य का प्रयोग करते हैं जिनका तात्कालिक प्रभाव अनुकूल व प्रतिकूल हो सकता है परन्तु उसके दूरगामी परिणाम बुरे ही होते हैं। इसके विपरीत यदि मनुष्य सत्य का आचरण कर असफल भी हो जाता है तो इसके दूरगामी परिणाम अच्छे व भले ही होते हैं। सत्य का आचरण व्यक्तिगत अथवा सामाजिक स्तर पर किया जाये तो इससे लाभ ही लाभ होता है। धर्म का अर्थ भी सत्य का आचरण व सत्य बोलना ही होता है। मन, वचन व कर्म से सत्य का आचरण मनुष्य को ईश्वर व देव पुरुषों की निकट पहुंचाता है। इसका कारण है कि ईश्वर व विद्वान जिन्हें देव कहा जाता है, सत्य का व्यवहार व आचरण ही पसन्द करते हैं, असत्य का नहीं। उन्नति का एक उपाय व साधन भी विद्वानों की संगति ही होता है। यदि हम विद्वान आचार्यों व विद्वान मनुष्यों की संगति में रहेंगे तो हमारा निश्चय ही कल्याण होगा।
खण्डन क्या होता है? खण्डन असत्य व अज्ञान का ही किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति रात्रि को दिन और दिन को रात्रि जानता व मानता हो तो उस अज्ञानी को यह बताना और मनवाना कि सूर्यादय से दिन का आरम्भ होता है तथा यह सूर्यास्त तक रहता है। सूर्यास्त से पुनः सूर्योदय तक के अलग अलग काल सायं, रात्रि व उषाकाल कहे जाते हंै। ऐसा ही यदि कोई व्यक्ति ईश्वर के स्थान पर जड़ पूजा के रूप में मूर्ति, कब्र, नदी, वृक्ष आदि की पूजा को ही अपना इष्ट बना लेता है तो उसको इसके मिथ्यात्व को समझाना खण्डन और जड़ पूजा की त्रुटि व खामियों का ज्ञान कराकर इनसे संबंधित सत्य मान्यताओं का प्रकाश करना मण्डन कहलाता है। उदाहरण के रूप में हम पौराणिक मान्तयाओं वाले परिवार में जन्में जहां मूर्तिपूजा, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध, फलित ज्योतिष, नदियों में स्नान का महात्म्य, सामाजिक भेदभाव के व्यवहार को माना जाता था। किशोरावस्था वा युवावस्था तक हमें इनकी बुराईयों का ज्ञान नहीं हुआ। हम एक मित्र के द्वारा आर्यसमाज के सम्पर्क में आये। वहां सत्संगों में जाने का अवसर मिला। आर्यसमाज में विद्वानों के अनेक विषयों पर उपदेश श्रवण किये। इन सभी मान्यताओं के विरोध में तर्क व खण्डन सुनकर आरम्भ में तो हमें बुरा लगता था परन्तु विद्वानों की प्रभावपूर्ण प्रवचन शैली और उनके तर्कों का हमारे पास उत्तर न होने के कारण उन बातों ने हमें सोचने पर विवश किया। हमने उनकी पुस्तकें व मुख्यतः सत्यार्थ प्रकाश को लेकर पढ़ा तो हमारी आंखे खुली। धीरे धीरे हमारा वैचारिक परिवर्तन आरम्भ हुआ और आज हमें ईश्वर की पूजा का यथार्थ महत्व विदित हुआ जिसके अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता, सर्वान्तर्यामी, सबको सन्मार्ग में चलने की प्रेरणा देने वाला, अनादि, अजन्मा, नित्य, अमर, वेद ज्ञान व उनके सत्यार्थों का दाता है। अपने सत्य आचरण से ईश्वर को प्रसन्न करना ही उसकी पूजा है और उसके विपरीत आचरण ही मनुष्य को ईश्वर के दण्ड का भागी बनाता है। ईश्वर की उपासना के लिए ईश्वर की स्तुति किया जाना आवश्यक है। स्तुति में ईश्वर के गुणों, कर्म व स्वभाव का सत्य वर्णन ही किया जाता है। प्रार्थना में ईश्वर से सत्याचरण में शक्ति की प्राप्ति के लिए प्रार्थना सहित अभीष्ट पदार्थों का मांगना हो सकता है। सन्ध्या भली प्रकार हो इसके लिए वेद व वैदिक साहित्य का स्वाध्याय भी आवश्यक है। यदि स्वाध्याय वा वैदिक विद्वानों के उपदेशों का श्रवण नहीं होगा तो इनसे मिलने वाले ज्ञान के अभाव में हम भली प्रकार से ईश्वर का ध्यान नहीं कर सकेंगे। स्वाध्याय व उपदेशों से भले कामों को करने की प्रेरणा मिलती है। इसमें यज्ञ करना, पक्षपात रहित न्याय का आचरण करना, सेवा व परोपकारमय जीवन व्यतीत करना, माता-पिता-आचार्य-विद्वानों की संगति व सेवा सहित प्राणी मात्र के प्रति हित की भावना रखना होता है। यह सब वेदों के अध्ययन से व विद्वानों के उपदेशों से ज्ञात होता है। मांसाहार मनुष्यों के लिए उचित नहीं है। मांसाहार के लिए स्वयं व दूसरों के द्वारा निर्दोष पशु व पक्षियों की अकारण हिंसा की जाती है जो कि धर्म न होकर अधर्म या पाप कर्म होता है और ईश्वरीय विधान में दण्डनीय होता है। जो लोग इस ज्ञान व विज्ञान से परिचित नहीं हैं व इसके विपरीत आचरण करते हैं, उन्हें यह ज्ञान देने के साथ उनमें यदि इसके विपरीत कोई विचार, मान्यता व आचरण हो, तो उसका खण्डन किया जाना आवश्यक है जिससे परिणाम में उनको दुःख प्राप्त न हो।
खण्डन एक प्रकार से शौच कर्म होता है। बिना स्वच्छता सम्पादित किये हम उन्नति नहीं कर सकते। घर में झाडू लगाना, बर्तन को स्चच्छ रखना, कपड़े धोकर स्वच्छ करना आदि इसी में आते हैं। यह दुरितो का खण्डन और भद्र का मण्डन है। जिस प्रकार मन के मैल व अज्ञान को दूर करने के लिए ज्ञान की पुस्तकें व आचार्यों के सदोपदेश, प्राणायाम व स्वाध्याय आदि आवश्यक होते हैं उसी प्रकार से मिथ्या मान्यताओं को हटाने व दूर करने के लिए खण्डन सहित मण्डन आवश्यक होता है। खण्डन व मण्डन दोनों साथ साथ किया जाना आवश्यक है। केवल खण्डन हो मण्डन न हो, तो यह उचित नहीं है। असत्य का खण्डन करने के साथ उसका सत्य विकल्प भी विद्वानों को प्रस्तुत करना चाहिये। महर्षि दयानन्द ने अपने जीवन काल में मण्डन व खण्डन दोनों ही किये। उन्होंने बताया कि वेदानुसार सच्ची ईश्वर पूजा क्या व कैसे होती है। इसको उन्होंने तर्क व युक्ति पर भी उपयोगी सिद्ध किया। इसके साथ उन्होंने मिथ्या पूजाओं का भी प्रकाश किया और उनका युक्ति व तर्कों से खण्डन किया। पक्षपात रहित मनुष्यों ने उनकी बातों को सुना तो उनकी बातें समझ में आ गई और उन्होंने अपने जीवन से सभी प्रकार के मिथ्याचारों को बन्द कर दिया और वेदमार्ग को अपना लिया। ऐसे लोगों का जीवन अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त हुआ है। ऐसे लोगों में हमारे सामने स्वामी श्रद्धानन्द जी, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, स्वामी सर्वदानन्द सरस्वती, पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, स्वामी सर्वानन्द जी, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, स्वामी वेदानन्द जी, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, पं. भगवदत्त जी आदि अनेक नाम लिये जा सकते हैं। इन सबका जीवन प्रशंसनीय होने से हमारे व सभी के लिए अनुकरणीय है। महर्षि दयानन्द ने जो सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ लिखा है वह असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन करने के उद्देश्य से ही लिखा था। इसका अध्ययन जीवनोन्नति के लिए महत्वपूर्ण है।
सत्य के निर्धारण के लिए खण्डन व मण्डन दोनों ही आवश्यक हंै। खण्डन का अर्थ है कि किसी पदार्थ के सत्य व असत्य दोनों पक्षों पर विचार किया जाये और तर्क व युक्तियों से सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन किया जाये। जो व्यक्ति असत्य के खण्डन को पसन्द नहीं करते वह जीवन में सत्य मत को कभी प्राप्त नहीं हो सकते। असत्य का खण्डन एक प्रकार से रोग निवारणार्थ औषधियों का सेवन है और उपचार व औषध सेवन न करना रोग को बढ़ाना व स्वयं को हानि पहुंचाना है। यदि हम किसी व्याधि या रोग से ठीक व स्वस्थ होना चाहते है तो हमें चिकित्सक के पास जाकर रोग के बारे में परीक्षा करानी होगी, उसके कारण व उससे होने वाले दुष्परिणामों को जानना होगा और साथ ही उसकी चिकित्सा करानी होगी। यदि लोग चिकित्सक को रोगों से होने वाली हानियों को सुनकर उसका विरोध करेंगे तो वह कभी स्वस्थ नही हो सकते। यही स्थिति धार्मिक, सामाजिक व अन्य क्षेत्रों में व्याप्त दुरितों को दूर करने के लिए, बुराईयों का प्रकाशन अर्थात् खण्डन किया जाता है। खण्डन से वही व्यक्ति डरते हैं जिनका अपना पक्ष दुर्बल होता है। वह अपने अज्ञान व स्वार्थ के कारण और कई बार केवल स्वार्थ के कारण खण्डन को पसन्द नहीं करते जो कि अनुचित है। अतः खण्डन से घबराना नहीं चाहिये अपितु खण्डन का खण्डन करने के लिए ठोस व सही युक्तियों व तर्क का सहारा लेना चाहिये जिससे सत्य स्थापित हो सके। आजकल देखा जा रहा है कि समाज में असत्य का खण्डन नहीं होता। इस कारण समाज में अनेक धार्मिक व सामाजिक रोग व्याप्त हो रहे हैं। इन्हें दूर नहीं किया जायेगा तो समाज में दुःख व अशान्ति को दूर व शान्ति व सुख को स्थापित नही किया जा सकेगा। शास्त्र कहते हैं कि जहां अपूज्यों की पूजा होती है और पूज्यों का तिरस्कार होता है, उस समाज व स्थान पर दुर्भिक्ष अर्थात् आपदाओं सहित म्त्यु का भय व्याप्त रहता है। इससे बचने का उपाय है कि अपूज्यों का सम्मान न किया जाये और पूज्यों का अपमान न किया जाये। कहीं कोई पात्र सच्चा विद्वान यदि खण्डन करता है तो उसे अमृत के समान समझना चाहिये। यह असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन ही मनुष्य जाति की उन्नति व कल्याण का मुख्य साधन है। इन्हीं पंक्तियों के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य