लघुकथा : घी का लड्डू
नोटबंदी की खबर से पसीने छूट गए मणिकांत के ! बड़ी दी ने जब मकान के लिए कर्जे के रूप में मांगे तब नकार दिया था मणि ने, “दीदी,रुपये होते तो अपना खुद का बड़ा मकान ना बनवा लेता ? देख रही हो ना इस दो कमरे के छोटे से घर में कितनी असुविधा होती माँ के साथ रहने में !” जब छोटी ने बेटी की पढ़ाई में मदद चाही तब भी मुकर गया और कुछ ऐसा ही बहाना बना गया था मणि ! मालुम सबको था कि पैतृक मकान बिका है और गाँव के खेत भी और मणि के पास लाखों नहीं वरन करोड़ों में रुपये हैं पर ….?
माँ चाहती तो दोनों बेटियों को उनका हक दिलवा सकती थीं, किन्तु बचपन से बेटे को शय देती रही थीं और बेटियों को “पराया धन “! अब वो पचास को पार कर चुका बेटा, माँ को समझाता ज्यादा था, समझता कम ! माँ को हमेशा भाई का पक्ष लेते देखा था बहनों ने, “अरे, मेरा घी का लड्डू है, टेड़ा भी भला !”
“माँ, जरा दीदी-जीजाजी और बच्चों की पासबुक तो देना ! हाँ छोटी और उसके परिवार की भी !”
दोनों बहनों के सपरिवार उसी शहर में अकाउंट थे जिसका इस्तेमाल मायके आने पर करती थीं !
“क्यों ? क्या करेगा उनका ? पता नहीं कहाँ रखी होंगी, बडकी पांच-एक साल से तो आई ही नहीं !”
“माँ, कैसे भी करके ढूँढो ! दोनों के अकाउंट में ढाई-ढाई लाख इस समय अवधि में दो बार डलवाने हैं और बच्चों के में एक कम पचास हज़ार, वरना समझो कि अब तक का बचाया धन सब रद्दी हो जाएगा !”
आज वही “घी का टेडा लड्डू” अशक्त माँ के आगे अपनी बेचारगी लिए खड़ा था !
— पूर्णिमा शर्मा