लघुकथा : बच्चों की खातिर
सचमुच बहुबत दुखद समाचार था लेकिन अफसोस जानकी पड़ोसिन से अफसोस नहीं कर पाई। उनकी बहूँ ने ही बताया कि उनकी सास प्रभा अपने भाई के घर गई है अचानक उनकी भाभी का देहांत हो गया। दो तीन हफ्ते तक उनका वहाँ से लौटना संभव नहीं था। अभी एक साल भी नहीं हुआ जब उनकी दूसरी बेटी का पति एक ऐक्सीडेंट में मारा गया। माँ बेटी फूट फूट के रोई थी अभी तो वो सताईस वर्ष की एक बेटे की माँ थी। भरा पूरा ससुराल था फिर भी सबको वो कांटे की तरह खटकती थी। किसी तरह प्राइवेट स्कूल में टीचर की नौकरी लग गई थी पर अभाव तो अभाव ही होता है ऊपर से अभागिनी होने का कलंक। कई बार प्रभा बताती कि लड़की का फोन आया था कि बहुत दुखी हूँ मुझे यहाँ से ले चलो। जानकी से रहा न गया तो उसने कह दिया –प्रभा उसे ले आ अभी उसकी उम्र ही क्या है? कोशिश करना कि बेटी का घर फिर से बस जाए ,बच्चे और बेटी को सहारा मिल जायेगा। इतना सुनते ही प्रभा आगबबूला हो गई थी। बोली – “खबरदार ऐसी बात कही तो हमारे ऐसे संस्कार नहीं कि बेटी का दूसरा ब्याह करें। अरे भाग्य में सुख होता तो पहला ही क्यूँ जाता? मैंने तो बेटी से कह दिया दोनों घरों की इज्जत इसी में है कि तू अपने बच्चे की खातिर जिये। थोड़े सालों में बेटा बड़ा हो जाएगा और उसके सब दुख दूर हो जाएँगे।” जानकी को चुप होना पड़ा। एक महीने के पश्चात जानकी को प्रभा मिली। मिलते ही भाई की व्यथा सुनाने लगी कि कैसे घर की सारी व्यवस्था तितर बितर हो गई है। उनकी माँ अपने पोते पोतियों को लेकर बहुत दुखी हैं। बच्चों ने स्कूल जाना आरंभ कर दिया है पर बहुत उदास रहते हैं। और सबसे ज्यादा दुख तो ये है कि अभी भाई पचास का भी नहीं हुआ कैसे ज़िंदगी काटेगा? बहन तुम्हारी नज़र में कोई गरीब विधवा या कुंवारी बेसहारा हो तो बताना उसका घर बसाना है। जानकी निरुत्तर हो उसका चेहरा ताकने लगी।
— इंद्रा रानी