ग़ज़ल
कुछ को लगा कि नाव डूबता नज़र आ रहा है
तो कोई अपनी सत्यता का गीत गाता रहा है |
तो कोई माँगता है हक़ तमाम संपत्ति स्वामित्व
फिर इंदिरा को याद कर प्रशस्ति गाता रहा है |
दिन भर खड़े खड़े हताश लोग सब हैं परेशां
कुछ नोट वास्ते तमाम दिन ही प्यासा रहा है |
आशा कभी रही नहीं कि अच्छे दिन गप्प होगा
चेहरा सभी कुसुम कली निराश मुरझा रहा है |
वादा बहुत हुआ प्रसाद कुछ मिला भी नहीं अब
मुँह अब झुका झुका इधर उधर छिपाता रहा है |
© कालीपद ‘प्रसाद’