नज़रिया
इंटरनेट की गड़बड़ी के कारण उस दिन द्वारका डिस्पेंसरी का कम्प्यूटर नहीं चल रहा था. गुलाबी सर्दी होने के कारण लाइन में नम्बर लगाकर कुछ बुज़ुर्ग सज्जन धूप में रखी एक बेंच पर बैठ गए और वार्तालाप चल निकला. एक सज्जन अपने बेटों से असंतुष्ट लग रहे थे. दूसरे सज्जन उनको समझा रहे थे, पर वे लगातार अपनी मजबूरी का रोना रो रहे थे. दूसरे-तीसरे दिन भी यही हुआ. न कम्प्यूटर चला, न सज्जन संतुष्ट दिखे. आखिर दूसरे सज्जन ने कह ही तो दिया, ”आप कभी संतुष्ट नहीं रह सकते.” बाकी सब देखते ही रह गए. कारण पूछने पर वे बोले- ”देखिए, आप कह रहे हैं- जब आपके बच्चे छोटे थे, तब यह घर आपने अपनी मेहनत और अपने पैसे से बनाया है. आप यह भी कह रहे हैं, बेटे हमें पूछते नहीं, हमारी बात सुनते नहीं, आप यह भी कह रहे हैं, हम बेटों के साथ रह रहे हैं. जब तक आप अपना नज़रिया बदलकर यह नहीं कहेंगे, कि बेटे हमारे साथ रह रहे हैं, आपका कुछ नहीं होने वाला.” बात उन सज्जन की समझ में आ गई थी, कम्प्यूटर भी चल गया था. सब विशेष दवाइयां इंडेंट करवाकर चले गए. अगले सप्ताह नियत दिन सब दवाइयां लेने आए. वे सज्जन मिठाई बांट रहे थे. अब बेटे उनके साथ जो रह रहे थे.