स्वामी दयानंद के ऋषि व समाज सुधारक बनने से जुडी प्रमुख घटनाएं
ओ३म्
महर्षि दयानन्द अपने समय में वेदों के अपूर्व पारदर्शी, मर्मज्ञ विद्वान व ऋषि थे। उनका वेदों का ज्ञान सृष्टि के इतिहास में उपलब्ध योगी, ऋषि व मुनियों में सर्वोत्तम कह सकते हैं। देश व समाज को जो लाभ उनके ज्ञान व प्रचार के कार्य से हुआ, उतना उनसे पूर्व व समकालीन किसी विद्वान व महापुरुष से नहीं हुआ। महाभारत के बाद वेदों के अध्ययन व अध्यापन की प्रक्रिया लुप्त प्रायः हो चुकी थी। वेद भी प्रायः लुप्त ही थे। ऐसे समय में आपने योगाभ्यास व अपने विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द जी की शिक्षा से जो योग्यता प्राप्त की, उसी का परिणाम स्वामी दयानन्द जी का वेदों में प्रवेश एवं ऋषित्व की प्राप्ति सहित वेदोद्धार एवं देश सुधार के कार्य थे। आर्यसमाज की स्थापना भी वेदोद्धार का ही एक साधन था जो आज भी विद्यमान है और इसके गौरवपूर्ण इतिहास के साथ विश्व को सत्य मार्ग पर चलाने का दायित्व लिये यह धीरे धीरे आगे बढ़ रहा है। अपने 131 वर्ष के अल्प जीवन में आर्यसमाज ने देश व विश्व के धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक जगत में अभूतपूर्व योगदान दिया है व अनेकानेक सफलतायें भी प्राप्त की हैं।
स्वामी दयानन्द महर्षि व महान योगी बने तो इसका प्रथम मुख्य कारण उनका 14 वर्ष की आयु में शिवरात्रि के दिन उपवास रखना व शिव मन्दिर में रात्रि जागरण करते हुए चूहों को शिव लिंग पर अबाध रूप से विचरण करते हुए देखने की घटना है। इस घटना ने मूर्तिपूजा से उनका विश्वास उठा दिया था। इस घटना के बाद जीवन में उन्होंने कभी मूर्तिपूजा नहीं की। सच्चे शिव की खोज की प्रेरणा भी उन्हें इसी घटना से मिली थी। विचार करने पर हमें यह लगता है कि एक ओर जहां इस घटना की फलश्रुति में दयानन्द जी के पूर्व जन्म का प्रारब्घ सहायक रहा वहीं इसमें ईश्वर की कुछ प्रेरणा व उनसे वेद प्रचार कराने का प्रयोजन भी प्रतीत होता है। यदि यह न भी हो तो भी यह घटना उनके जीवन में अद्भुत संयोग है जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। यहां विचार करते हुए हमें रामायण में श्री राम चन्द्र जी के वनवास की बात भी याद आती है। कैकेयी जी ने अपने पुत्र भरत को राजा बनाने के लिए महाराज दशरथ से राम को 14 वर्षों के लिए वन में भेजने तथा भरत को राजा बनाने का वचन पूरा करने को कहा था। न राजा दशरथ और न कैकेयी जी को पता था कि भविष्य में यह कार्य जो कि अन्य प्रयोजनों के लिए किया था, ऋषियों व धार्मिक लोगों की राक्षसों से रक्षा के साथ रावण के वध सहित सर्वत्र वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रसारक व स्थापक सिद्ध होगा। इस घटना में ऋषि दयानन्द के जीवन में शिवरात्रि की घटना के समान ही युग परिवर्तन का कार्य किया। आज भी हम उस युग प्रवर्तक श्री रामचन्द्र जी को श्रद्धापूर्वक स्मरण करते हैं। विचार करने पर हमें इन दोनों घटनाओं में ईश्वर का कुछ विधान प्रतीत होता है जो मानव कल्याण की दृष्टि से हुआ।
ऋषि दयानन्द जी के जीवन की दूसरी घटना उनकी बहन की हैजे से मृत्यु होना है। इसके कुछ दिनों बाद पारिवारिक जनों में उन्हें सर्वाधिक स्नेह देने वाले चाचा की मृत्यु का होना भी उनके भावी जीवन में युग निर्वाण के कार्यों की एक कड़ी है जिससे उनमें वैराग्य उत्पन्न हुआ और वह मृत्यु रूपी अभिनिवेश क्लेश की ओषधि की तलाश में लगे रहे। इसी कारण उन्होंने विवाह बन्धनों को स्वीकार न कर गृह त्याग कर दिया। इसके बाद वह ज्ञानियों व योगियों को ढूंढते हुए उनसे अमर होने की अपनी शंका प्रस्तुत करते रहे जिसका उपाय उन्हें ‘योगाभ्यास’ करने का योगियों व ज्ञानियों का परामर्श था। अतः उन्होंने सभी ज्ञानियों व योगियों की शरण में जाकर जिससे जो विद्या व योग में सहायक क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त हुआ, उसे पूर्ण श्रद्धा से प्राप्त किया जिससे वह योग के अन्तिम अंग समाधि का न केवल सफल अभ्यास ही कर सके अपितु समाधि के उद्देश्य व लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार को भी उन्होंने सफल व सिद्ध किया था, ऐसा अनुमान होता है। यह योगाभ्यास भी उनके वेदाद्धार, धर्म प्रचार और देश सुधार के कार्यों में अतीव सहायक सिद्ध हुआ।
ऋषि दयानन्द को अपनी युवावस्था व उससे पूर्व से ही विद्या में विशेष रूचि थी। उन्हें अपने गुरुओं से मथुरा के स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी का पता मिला था जो संस्कृत की पाणिनी व्याकरण के साथ शास्त्रों का अध्ययन कराते थे। सन् 1860 में आप गुरु विरजानन्द जी के पास मथुरा पहुंचे और उनसे विद्यादान देने की प्रार्थना की। गुरु जी ने प्रार्थना स्वीकार कर दयानन्द जी को अध्ययन कराना आरम्भ कर दिया। सन् 1863 में आपका अध्ययन पूरा हो गया। आपने गुरु जी से विदा ली। विदाई के समय गुरु विरजानन्द जी ने दयानन्द जी को देश में सर्वत्र व्याप्त वेद विद्या के अप्रसार रूपी अन्धकार को दूर करने की प्रेरणा की थी। अपने महान गुरु के परामर्श को आपने श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया। आपने गुरु को दिये अपने वचनों पर विचार कर अविद्या दूर करने की योजना बनाई जिसके दर्शन हम उनके भावी जीवन में करते हैं। देश में व्याप्त अन्धविश्वासों व कुरीतियों का मुख्य कारण उन्होंने अविद्या को पाया और इस अविद्या का कारण वेदों का अप्रसार था। अपने पुरुषार्थ से आपने चारों वेदों को प्राप्त कर गुरु जी से प्राप्त विद्या व योग समाधि से अर्जित विद्या के आधार पर वेद मन्त्रों के यथार्थ अर्थों पर विचार कर उनकी संगति लगाई और वेदों का प्रचार आरम्भ कर दिया। आप नगर नगर में जाते और वहां लोगों को धर्म का उपदेश करते थे। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्यातिष, मृतक श्राद्ध, सामाजिक असामनता व भेदभाव, बाल विवाह व अनमेल विवाह आदि का आपने विरोध व खण्डन किया और वैदिक सिद्धान्तों व मान्यताओं के मण्डन व प्रचार सहित स्त्री व शूद्रों को भी वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त कराया। आपने नवम्बर, 1869 में काशी के दिग्गज विद्वानों से मूर्तिपूजा पर शास्त्रार्थ कर मूर्तिपूजा को वेद विरुद्ध सिद्ध किया था। कालान्तर में आपने अपने एक अनुयायी राजा जयकृष्ण दास की प्रेरणा से अपने वैदिक विचारों व सिद्धान्तों पर आधारित ‘‘सत्यार्थ प्रकाश” ग्रन्थ की रचना की। कुछ काल बाद आपने मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना भी की जिसका उद्देश्य वेदों का प्रचार व वेद विरुद्ध मतों का युक्ति व तर्क सहित शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर खण्डन करना था। आप गुण कर्म स्वभाव के आधार पर वर्णव्यवस्था को मानते थे। समाज में जन्म के आधार पर जो जन्मना जाति व्यवस्था प्रचलित थी वह स्वामी दयानन्द जी को स्वीकार्य न थी। छुआछूत के भी आप कट्टर विरोधी थे। पण्डितों के विरोध के बावजूद एक बार एक दलित बन्धु द्वारा सूखी रोटियां लाने पर भी आपने उसे ग्रहण कर अपनी क्षुधा निवृति की थी। पण्डितों के आरोप की यह शूद्र की रोटी है, स्वामी जी ने कहा था कि नहीं यह तो अनाज व आटे की रोटी है। शायद यह इतिहास की अनूठी घटना है। आजकल लोग छोटी छोटी घटनाओं का जमकर प्रचार करते हैं परन्तु यह घटना न दलितों को, न उनके नेताओं और न अन्य राजनीति करने वालों को स्मरण आती है। आज की राजनीति अधिकांशतः स्वार्थों की पूर्ति का ही प्रायः बन कर रह गई हैं जहां राष् राष्ट्रीय हितों की भी अनदेखी होते हुए प्रजा को देखना पड़ता है।
स्वामी दयानन्द जी ने वेदों का जो प्रचार किया उससे देश में शिक्षा जगत व समाज में भारी सुधार व परिवर्तन हुआ। धार्मिक व सामाजिक अन्धविश्वास, कुरीतियां व मिथ्या परम्परायें समाप्त हो गईं हैं या उनमें काफी कमी आई है। देश की आजादी में भी आपके विचारों व आपकी विचारधारा से प्रभावित आपके अनुयायियों का सर्वाधिक योगदान है। इन सब सुधारों का श्रेय स्वामी दयानन्द जी के जीवन में शिवरात्री के दिन घटना को है और उसके बाद उनके घर में भगिनी व चाचा की मृत्यु से उत्पन्न वैराग्य को भी है। स्वामी दयानन्द जी यह महान कार्य इस कारण कर सके कि वह एक महान योगी थे जिसका श्रेय उनके पुरुषार्थ सहित उनके योग गुरुओं को है। इन सबके साथ प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी गुरु विरजानन्द जी की शिक्षा को भी ऋषि दयानन्द को वेद प्रचार व देश सुधार के लिए तैयार करने का श्रेय है। इन सब हेतुओं सहित सृष्टि में व्याप्त सच्चिदानन्द ईश्वर की प्रेरणा व सहायता भी ऋषि दयानन्द को वेद प्रचार व समाज सुधार के कार्यों को कराने में एक शक्ति के रूप में साथ रही है। हम आशा करते हैं विज्ञ पाठक भी हमारे विचारों से सहमत होंगे। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य