स्वास्थ्य

मल विसर्जन

मल-मूत्र विसर्जन के बारे में मैं एक विस्तृत लेख पहले लिख चुका हूँ। यहाँ केवल मल विसर्जन के बारे में कुछ और महत्वपूर्ण बातों की चर्चा करूंगा।

प्राचीन काल से ही मल विसर्जन की क्रिया यानी शौच किसी नदी या तालाब के किनारे खुले में या जंगलों में होती रही है। आज भी इसे जंगल जाना कहते हैं। पहले जनसंख्या कम थी और प्रत्येक बस्ती के आस-पास बहुत जंगल भी थे, अतः इसमें कोई कठिनाई नहीं होती थी। जब जंगल कम हुए और कृषि कर्म अधिक होने लगा तो मल विसर्जन का कार्य खेतों में किया जाने लगा।

आप मानें या न मानें मल विसर्जन का यही रूप सबसे अधिक वैज्ञानिक और सुरक्षित है। खेतों में शौच करने के बाद मल को मिट्टी से ढक दिया जाता था, जिससे बदबू नहीं फैलती थी। इस तरह करने से खेतों को कीमती खाद भी प्राप्त होती थी। आज भी गाँवों में अधिकांश जनता इसी प्रकार मल विसर्जन करती है। इसमें महिलाओं को लज्जा का कोई प्रश्न नहीं उठता, क्योंकि वे दिन पूरा निकलने से पहले मुँह अँधेरे ही शौच से निवृत्त हो जाती हैं।

लेकिन शहरों में इस पद्धति को नहीं अपनाया जा सकता। एक तो वहाँ खेत हैं ही नहीं। दूसरे रेल पटरियों के किनारे या खाली स्थानों में मल विसर्जन करने पर उनके ऊपर डालने के लिए मिट्टी भी उपलब्ध नहीं होती, जिससे मल वहाँ पड़ा हुआ सड़ता रहता है और दुर्गंध के साथ अनेक तरह की बीमारियों का कारण बनता है। इसलिए हमें मजबूरीवश शौचालयों का उपयोग करना पड़ता है।

कुछ साल पहले तक घरों में जो शौचालय बनाये जाते थे, उनमें कमोड देशी पद्धति का होता था, जिन पर दोनों पैरों पर कागासन में बैठा जाता था। इस प्रकार बैठने से मल विसर्जन अच्छी तरह होता है और अधिक जोर नहीं लगाना पड़ता। परन्तु आजकल जो शौचालय बनाये जाते हैं, उनमें कमोड ऊपर उठा हुआ रहता है, जिन पर चूतड़ टिकाकर बैठना पड़ता है, क्योंकि कागासन में बैठने की सुविधा नहीं होती। इस स्थिति में शौच करने पर मल निकालने के लिए देशी पद्धति की तुलना में लगभग तीन गुना अधिक जोर लगाना पड़ता है। हालांकि अधिक उम्र के व्यक्तियों के लिए यह बहुत सुविधाजनक होता है, क्योंकि उनके लिए कागासन में बैठना, फिर शौच के बाद उठना बहुत कठिन होता है।

इस समस्या का एक समाधान तो यह है कि हमें विदेशी पद्धति के ऐसे कमोड लगवाने चाहिए, जिन पर कागासन में बैठने की भी सुविधा हो और चूतड़ों के बल बैठने की भी। ऐसा कमोड साथ के चित्र में दिखाया गया है। इससे दोनों पद्धतियों का लाभ प्राप्त किया जा सकता है। हमें मल-मूत्र के विसर्जन में बिल्कुल जोर न लगाना पड़े इसका प्रयास करना चाहिए। चित्र में सीट और ढक्कन नहीं है। पर ये दोनों के साथ भी मिलते हैं।

इसका दूसरा समाधान यह है कि हम चूतड़ों के बल बैठें और पैरों को किसी ऊँचे स्टूल पर रख लें, जिससे शरीर की स्थिति लगभग कागासन जैसी बन जाती है। इससे भी काफी लाभ हो जाता है। ऐसे स्टूल 9 इंच से 12 इंच तक ऊँचे होने चाहिए। अलग से दिये गये वीडियो में इसे समझाया गया है।

बहुत से लोग देर तक शौचालय में बैठने के आदी होते हैं। यह उचित नहीं। यदि आपकी पाचन क्रिया ठीक है तो आपको शौचालय में दो मिनट से अधिक बैठने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए। इस अवधि में जितना मल निकल जाए, उतना पर्याप्त है। शेष अगली बार निकल जाएगा, क्योंकि हमारे शरीर में मल-मूत्र बनने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है।
हमें शौच से कब उठ जाना चाहिए इसकी एक पहचान है। जब हम शौच के लिए जाते हैं, तो पहली बार मल और मूत्र लगभग एक साथ ही निकलते हैं। मूत्र निकलना बन्द हो जाने के बाद भी मल थोड़ा थोड़ा करके निकलता रहता है। पर्याप्त मल निकल जाने पर दूसरी बार मूत्र निकल आता है। यह इस बात का संकेत है कि अब और अधिक मल नहीं निकलेगा। बस हमें उसी समय उठ जाना चाहिए। उसके बाद भी बैठे रहना समय की बरबादी है।

प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति को दिन में दो बार मल विसर्जन करना आवश्यक होता है। यदि आप केवल एक बार ही शौच के लिए जाते हैं, तो यह बीमारियों को निमन्त्रण देने के तुल्य है, क्योंकि जो मल निष्कासन के लिए तैयार होता है, उसका शरीर में पडे रहना उचित नहीं। इसलिए हमें याद करके अपनी सुविधा के समय पर कम से कम दो बार मल विसर्जन के लिए अवश्य जाना चाहिए।

विजय कुमार सिंघल
मार्गशीर्ष कृ 6, सं 2073 वि. (19 नवम्बर, 2016)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]