दूब
ओस बैठी है दूब की भूजा पर
वो ठिठुरती नहीं सबल खड़ी है फिर भी
सीना ताने वह डरती नहीं हिमखंडों से
रहती है जुड़कर जमीन से
उसका शक्तिपुंज है उसकी एकता में
वह फैली है मैदानों में सुदूर
सहती है सारी ऋतुओं का बदलाव
रवि के सामने रहती है सीना ताने
दूब है ,यह दूब कभी डरती नहीं
कंधे मजबूत हो जाते हैं सुना है
दूब से ,देखा भी है शरद में
कुछ इसी तरह से आना जाना रहता है
परिस्थितियों का जीवन में
मगर जो रहता है सबल खड़ा दूब सा
वो देता है जीवन को सार्थकता
मजबूरियों की ठिठुरन और मुसीबतों की तपन से
नहीं डरता है वो मानव जो रहता है दूब सा
और इसी तरह फैल जाती है
कीर्ति चारों दिशाओं में
जो देता है प्रेरणा आने वाली पीढ़ियों को
सदियों तक