कहानी : लड़का कैसे हार गया !
रेवाड़ी के पास का कोई गाँव, कोई इसलिए की नाम जान कर क्या करना| कोविद और दिव्या चचेरे भाई बहन थे |सारा परिवार गाँव में साथ रहता था फिर दिव्या के पिता की शहर में नौकरी लग जाती है| पूरा घर झूम उठता है| घर कुनबे से कोई तो बाहर निकला यही सोच अम्मा ख़ुशी ख़ुशी दिव्या के पिता को परिवार सहित शहर बसने का आशीष देती है| सामान बंधता है और दिव्या के पिता अपनी दो बेटियों के साथ शहर आकर बस जाते है| गाँव से कोई ढाई सौ किलोमीटर की दूरी पर शहर का घर था इसलिए आना जाना सब बना रहता| कहानी तब से शुरू हुई जब दिव्या का चचेरा भाई कोविद शहर पढ़ने के लिए आता है| दिव्या के पिता ने दो कमरों का घर लिया जिसमें उन्होंने जल्दी ही अपनी गृहस्थी बसा ली| कोविद के पिता चाहते थे कि वो न पढ़ सके तो कम से कम उनका बेटा तो पढ़ लिख ले, माँ ने कलेजे में पत्थर रखकर इकलौते बेटे को शहर पढ़ने जाने दिया और कहा अच्छे स्कूल में डाले उसका सारा खर्च वहीँ देगें|
दोनों की उम्र में कोई खास अंतर नहीं था तो दोनों का एक जैसी छठवी कक्षा में दाखिला हो गया पर स्कूल अलग अलग रहा उसका कारण भी स्पष्ट था| कोविद को कान्वेंट स्कूल में डाला गया भ्लेही वो उनके निवास से काफी दूर हो पर दिव्या को दूर के स्कूल में डालना उनके कलेजे से बाहर था सो उसे घर के पास वाले पब्लिक स्कूल में डाला गया| दोनों की पढ़ाई शुरू हो गई| यथावत उनकी शहर की दुनिया एक रौ में बहने लगी|
दिव्या की छोटी बहन अभी छोटी ही थी| सो दोनों चचेरे भाई बहन एक साथ खेलते–उठते, बैठते-पढ़ते थे| एक समझ थी या नहीं पर सोच,ख्याल एक ही था| कभी सड़क पर खेलते खेलते साथ में दौड़ जाते| लड़की जब पीछे रह जाती तब लड़का खूब हँसता, चिढ़ाता फिर लड़की चीभ दिखा कर दूसरी ओर भाग जाती| साथ पढ़ते तो दिव्या जो गणत मुंह जबानी झट से प्रश्न सुलझा लेती पर कोविद देर तक कागज़ पर गुणा भाग करता रह जाता ये देख दिव्या खूब चिढ़ाती तब गुस्से में चिढ़ कर वो पढ़ाई छोड़ उठ जाता|
फिर छुट्टियों में जब वे गाँव पहुँचते तो उनकी उड़ान को थाम पाना और भी मुश्किल हो जाता| वे दो मुक्त परिंदों की भांति यहाँ तहाँ उड़ते फिरते| शाम को परिदों की तरह नीड़ पर पहुँचने पर बेहद थकान से वे पसर जाते| फिर दादी ,माँ उन्हें उठाती, झंझोरती| जब तक कोविद गाँव में रहता माँ–दादी दूध , दही, घी से उसे जबरन नहलाए रहती| फिर ढेरों खाने का सामान बांध अश्रुंपूर्ण विदाई देती| शहर पहुँचते वही क्रम अपने अनुक्रम में चलता रहता|
वे साथ साथ रहते चचेरे भाई बहन धीरे से अपने वयः संधि के मोड़ तक पहुँच गए| अब उनकी सोच, ख्याल,विचार,रूचि सब अलग अलग हो गई| बचपन में साथ साथ रहने वाले और एक दूसरे के मित्रों के घर साथ साथ जाने वाले भाई-बहन अब अपने अपने मित्रों के साथ अलग थलग उठने बैठने लगे, खिलखिलाने लगे|
दिव्या बात बात में मुस्काती फिर सहेली के कानों में फुसफुसाती थी| उसके पास बातों की मोटी सी पोटली थी जब गाँव आती तो गाँव की सखियों – सहेलियों, चाची और दादी के आगे पोटली खोल कर बैठ जाती| जब तक रात न घिर आती उसकी बातें और हँसी दोनों ही नहीं रूकती| शहर के खाने से लेकर कॉलेज के किस्से सब चाव से सुनते| गाँव के सम्मुख शहर हमेशा इठलाता रहता| कोविद भी अपने गाँव के दोस्तों के आगे अपनी रंगीन शर्ट का कॉलर उठा कर अपनी बातों में शहर उनके सम्मुख लाकर खड़ा कर देता| चाव ऐसा कि अँधेरा होने के बाद भी लोग उसकी कहानी से नहीं उबते|
अब वे दोनों बारहवीं में थे और दोनों विज्ञान से पढ़ रहे थे| दिव्या के अंक ऐसे थे कि विज्ञान सहज ही उसे मिल गया पर कोविद को अपने सीमित अंको के कारण बड़ा प्रयास करना पड़ा आखिर कान्वेंट से उसे दिव्या के स्कूल में आना पड़ा| उसके पिता को लगा की उसके बेटे की देखरेख में कोई कमी हो रही है अतः उसको कोचिंग में डाल दिया गया| अब दोनों साथ में स्कूल जाते| दोनों की कक्षा भी एक थी पर दोनों साथ नहीं बैठते थे| दिव्या की अपनी सहेलियां थी वो उन्हीं के साथ उठती बैठती और उन्हीं के साथ लंच भी करती| कोविद शुरुवात में थोड़ा अलग थलग सा रहा| एक तो स्कूल नया था फिर उसके सारे दोस्त छूट चुके थे| वो सबसे अलग सीट पर किनारे बैठता| पहले पहले तो उसको अकेला देख दिव्या कभी कभार उसके साथ लंच कर लेती या कुछ देर बैठ जाती| फिर धीरे धीरे कोविद के भी दोस्त बनने लगे| कोविद पढ़ाई में सामान्य था पर दिव्या बहुत अच्छी थी| पढ़ाई के साथ साथ वो स्कूल के खेल से लेकर स्कूल के हर सांस्कृतिक कार्यक्रम में हिस्सा लेती| ऐसा लगता जैसे उसके बिना स्कूल का कोई कार्यक्रम अधूरा सा है| पर कोविद को इन सब में कोई रुची भी नहीं थी| अपने खाली वक़्त में दोस्तों के साथ कही बैठा मिलता| धीरे धीरे क्लास के पिछली बैंच के लड़के उसके पक्के मित्र बन गए| जिनका काम क्लास में सिर्फ उपस्थिति दर्ज करना भर था बस और कुछ नहीं| दिव्या और कोविद स्कूल साथ आते पर जाते साथ नहीं थे| कोविद स्कूल के बाद वहां से कोचिंग चला जाता| अब कोचिंग उसकी मस्ती का अतिरिक्त समय हो गया|
समय के आधुनिकीकरण से शहर बढ़ता और गाँव सिकुड़ता गया| इसका असर ये हुआ की कोविद के पिता की जमीन जो शहर के हाईवे के नजदीक थी किसी सरकारी प्रोजेक्ट में आने के कारण एक अच्छी कीमत में उनके द्वारा बेच दी गई| अब वो भी शहर में अपने भाई के पास आ गए|
रात में सब साथ खाना खा रहे थे|
‘अच्छा किया भैया जो आप भी यहाँ आ गए- भाभी कोविद को बहुत याद करती थी|’
‘हाँ वो तो है- अब हम भाई साथ रहेंगे – इतने साल तो तू अपना घर न बनवा पाया पर अब देख मैं कितना बड़ा घर बनवाता हूँ – बल्कि मैंने तो सोचा की तेरी दोनों बेटियों की शादी के बाद तो तू अकेला ही रह जाएगा|’
छोटा भाई कृतघ हो उठा| आखिर एक छोटी नौकरी से घर चलाता की घर बनवा पाता|
‘देख छोटे किस्मत देख इतना हाड़-मांस गला कर इतने समय में भी तू जितना न कमा पाया एक बार में मैं इतना पा गया की अब मैं खुद जमीन का ठेकेदार बन सकता हूँ – नौकरी में कुछ नहीं रखा जमीन में बहुत पैसा है मैंने सोच लिया है शहर से बाहर बीघो जमीन खरीद कर कीमत बढ़ते बेच दूंगा और यहाँ शहर में मकान के साथ दूकान खुलवा कर किराए पर दे दूंगा – फिर पूरी ज़िन्दगी आराम|’ कुछ पल रुक कर लगभग हँसते हुए ‘बाबू की तरह कलम घिसने से ऐश न होए|’
जल्दी ही बात की तामील भी हो गई| एक बड़ा घर बन गया| नीचे दो तीन दुकाने डाल दी गई| घर बैठे कोविद के बापू की आमदनी होने लगी| अब काम नहीं आराम था और कोविद की ऐश थी| बदलते ज़माने की रौ में बहते एक स्मार्ट सेल फोन कोविद को मिल गया|
आखिर बारहवीं का रिज़ल्ट भी आ गया| वही हुआ जिसका सबको अंदेशा होते हुए भी अंदेशा नहीं था| दोनों भागे भागे स्कूल गए पर दिव्या को मारे डर के रिज़ल्ट देखने तक की हिम्मत नहीं हुई पर कोविद ने लपक कर रिज़ल्ट देखा और जो अंदेशा था ठीक हुआ भी वही| दिव्या को सत्तर प्रतिशत मिले और कोविद बस फेल होते होते बचा| पर कोविद के चेहरे पर लेश मात्र भी खलिश नहीं थी| पर उसका दुःख दिव्या के चेहरे पर था|
‘अरे बहन नैया मेरी डूबते डूबते बची हैं और उदासी तुम्हारे चेहरे पर हैं – छोड़ो न|’
घर पर दिव्या के पास होने की खुशी कम कोविद के कम नम्बरों का दुख ज्यादा दिखाई दिया|
‘अरे ये पढ़ाई में रखा क्या है बस तू उदास न होना मैं तो बस चाहता था की तू दुनिया दारी जाने – अब इतना जमीन का काम बढ़ा रखा है इसे कौन संभालेगा तू ही न|’
दिव्या हैरान हो कर देखती रही| उसके पिता अपनी नौकरी की तुत्च्यता पर और गम गीन हो उठे|
‘न बापू मैं कॉलेज जाना चाहता हूँ अब क्या बारहवीं पास रहूँगा क्या!’
‘चल तेरी मर्ज़ी|’
कोविद को पता था कि कॉलेज उसकी मस्ती का अड्डा बनेगा|
पल में माहौल बदल गया पुराने के त्याग की और नई की तैयारी शुरू हो गई|
दिव्या से किसी ने नहीं पूछा कि वो आगे क्या करना चाहती है पर उसे कहना था
‘पापा मुझे कल फॉर्म भरना है|’
सबने दिव्या की ओर यू देखा मानो कुछ अज़ब बात कर दी उसने|
रात के खाने के बाद दोनों भाई बैठे थे|
‘देख छोटे मानता हूँ शहर के तौर तरीके गाँव से अलग होते है पर दुनिया दारी से हम अलग नहीं हो सकते |’
छोटा भाई बात नहीं समझ पाया बस बड़े भाई की तरफ ताकता रहा|
‘देख तेरी है दो बेटीयां एक को अभी नहीं निपटाएगा तो दूसरी के लिए कैसे पैसा जोड़ेगा|’
‘देख गाँव की जमीन के हिस्से में तू बहुत पहले अपना हिस्सा बेच चुका था, तू दिव्या के लिए रिश्ता खोज़ना शुरू कर मैं तेरी कुछ मदद कर दूंगा|’
रात की बात किसी गाज़ की तरह दिव्या पर गिरी |
अब दिव्या को इस शादी की सुगबुगाहट का अंदेशा हो गया पर उसके कुछ सपने थे जिनके पनपने से पूर्व उनका टूटना वो सामने प्रत्क्षय देख रही थी|
घर में एक उत्सव का दिन भी आया | कोविद का जन्मदिन था | बड़े जोर शोर से तैयारियां हो रही थी अबकी उसके जन्मदिन पर बड़ी पूजा का आयोजन था| अब तक उसके पिता ने इतना धन कमा लिया था कि पैसा उड़ाने को एक खास कारण मिल गया था|
दिव्या कॉलेज जाने को तैयार थी कोविद झट से उसके सामने आ गया| दिव्या का मुंह हैरत से खुला का खुला रह गया|
कोविद अपनी नई चमचमाती बाइक लिए खड़ा था|
‘आ तुझे आज इसमें तेरे कॉलेज छोड़ दूँ|’
‘वाह भाई नई है|’
‘बापू ने मेरे जन्म दिन पर दी है|’
अभी कुछ दिन पहले दिव्या का जन्म दिन था| हर साल की तरह एक साधारण दिन की तरह वो दिन भी था| पर दिव्या को अपने पिता से कुछ उम्मीद थी | हमेशा की तरह उसके पिता ने दिव्या के मंदिर से लौटते प्रसाद में कुछ नया पन देख हैरत से देखा फिर याद करते हुए
‘अरे आज जन्म दिन है तेरा – खुश रहे|’
पापा आज आपके आशीष के अलावा कुछ मांगू?’
उसके पिता चौंक गए और मन ही मन अपनी खर्च का हिसाब देने को आतुर हो उठे| पर उससे पहले ही दिव्या बोल उठी –‘पापा मुझे मेरा बी एस सी पूरा करने दीजिए बस और कुछ नहीं चाहती|’
बड़ी हिम्मत कर दिव्या ने कहा और उसके पिता अनचाहा हाँ करने के अलावा कुछ न कर सके|
अपने जन्मदिन पर कोविद बाइक और दिव्या अपने लिए मौहलत पा कर अब दोनों खुश थे|
बाइक से झट से उसे कॉलेज छोड़ दिव्या के उतरते बोला – ‘अब लेने नहीं आऊंगा |’
आना न भाई मेरा कॉलेज तेरे कॉलेज के रास्ते में ही तो है न |’
‘अरे नहीं क्या यार तू चाहती है सारे दोष मेरा मज़ाक बनाए कि बाइक क्या बहन को कॉलेज छोड़ने के लिए ली है|’
‘और तो किसलिए ली है|’
वो मुस्कराता बाइक घुमा कर चला गया|
दिव्या के लिए ये दो साल बहुत कीमती थे | कॉलेज के पूरा समय उसका सारा ध्यान पढ़ाई में रहता| उसके प्रोफ़ेसर उससे बहुत उम्मीदे रखते थे| उसके विषय के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट उसकी पढ़ाई की तलीनता से बहुत प्रभावित थे|
‘दिव्या तुमने मेडिकल का एग्जाम कभी दिया तुम जरूर निकाल लेती|’
‘मैं साईंनटिस्ट बनना चाहती हूँ सर|’
दिव्या खुद अवाक् रह गई की क्या कह गई| अपने सपने कभी जुबान पर नहीं लाई थी|
‘अच्छी बात है पर मेडिकल देती तो|’
दिव्या क्या कहती की पिता को कभी मंज़ूर नही था, पहली बार में मना कर दिया की हमारे पास तुम्हेँ डॉक्टर बनाने लायक धन नहीं है| बस पढ़ लो|
दिव्या के प्रोफ़ेसर उसे हर दम प्रोत्साहित करते उसे नई –नई किताबे देते रहते|
अब वे उससे बातें करते वो भी कभी कभार मन की अपनी बात कह लेती |
‘सर मुझे नहीं लगता की मैं अपनी पढ़ाई आगे जारी रख पाऊँगी|’
‘ओह्ह – समझता हूँ हमारी ज़िन्दगी का यही दुर्भाग्य है जो व्यक्ति जो चाहता है उसे वही नहीं मिलता लेकिन तुम चाहो तो मैं तुम्हारे पिता से बात कर सकता हूँ|’
‘मैं एक प्रतिभा को खोने नहीं देना चाहता|’
दिव्या जानती थी इससे कुछ खास प्रभाव नहीं पड़ने वाला पर उसे लगा शायद कुछ बात बन जाए |
आखिर एक दिन अपने पिता को प्रफेसर के कहने पर उनको कॉलेज आने के लिए मना लिया|
डर भी था कि कहीं बात उलटी न पड़ जाए पर इसके सिवा चारा भी क्या था|
डिपार्टमेंट खाली था वहां दिव्या के पिता और प्रोफ़ेसर ही मौजूद थे|
दिव्या के पिता कह रहे थे – ‘दिव्या ने बताया कि आप मुझसे मिलना चाहते है |’ अजीब सी घबराहट उनके चहेरे पर नज़र आई|
‘अरे बस ऐसे ही आप नाहक परेशान हो रहे है – आपकी बेटी एक ख़ास प्रतिभा है उसके नम्बर देखे आपने |’
वे थूक गटकते सिर्फ हाँ कह सके|
‘बहुत कुछ कर सकती है बस मौके चाहिए उसे|’
अब वहां कुछ पल की ख़ामोशी सी छा जाती है|
‘देखीए आपकी सामाजिक मजबूरी को मैं समझता हूँ मैं भी इस समाज से अछुता नहीं पर आप इस समाज के नाम पर एक होनहार प्रतिभा की बलि नहीं दे सकते अगर कल्पना चावला के पिता ने भी इस सामाजिक मान्यता को अपने ऊपर हावी होने दिया होता तो कल्पना चावला सिर्फ एक नाम होती पहचान नहीं|’
‘क्या आपने यही कहने बुलाया मुझे|’
बात को फिसलते देख प्रोफ़ेसर को आन्तरिक दुःख पंहुचा पर वे अपने प्रयास को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहते थे|
‘इस नौकरी वौकरी में क्या रखा है इसके चक्कर में उसकी उम्र बढ़ गई तो ढंग का लड़का भी नई मिलेगा – आप तो जानते ही है आज कल बेरोजगारी कितनी बढ़ गई है – लड़कों तक को नौकरी के लाले पड़े है|’
‘योग्यताओं वालों के लिए आज भी बेरोज़गारी नहीं है|’
‘छोड़ीए प्रोफ़ेसर साहब इस निज़ी मसले पर बात मत करिए कुछ और कहना हो तो बताइए|’
प्रोफ़ेसर स्थिति हाथ से निकलता देख हडबडा गए|
‘आप उसकी शादी के लिए ही परेशान है न तो मैं आपसे वायदा करता हूँ उसे तीन साल और दे दिजिए फिर उसके लिए अच्छे रिश्ते की मैं जिम्मेदारी लेता हूँ|’
‘आप ? आप कहाँ से लाएँगे अच्छा रिश्ता?’
देखीए मैं धर्म का ब्राह्मण हूँ मेरा इकलौता बेटा मेडिकल पढ़ रहा है – अगले दो साल में वो सर्जन हो जाएगा – आप मेरे परिवार के बारे जो चाहे पता कर लीजिए और रही बेटे की हाँ तो मेरा बेटा इतना संस्कारी है कि मेरी बात कभी नहीं मना करेगा – क्या अब भी नहीं मानेगे आप?’ उस पल प्रोफ़ेसर को भी नहीं पता की वे क्या कह गए पर मन को बस संतुष्टि तब आई जब वे दो साल की बात पर राज़ी हो गए और फिर मौन वहां से चले गए|
दिव्या ख़ुशी से झूम उठी पर घर पर जैसे भूचाल आ गया|
‘तू पागल हो गया है क्या लड़की को घर बैठा कर कब तक रखेगा – आज का माहौल देखा है कितना खराब हो रहा है कुछ उच्च नीच हो गई तो क्या करेगा एक पल में सारे खानदान का नाम डूब जाएगा|’
दिव्या के पिता कशमकश में पड़ गए |
‘अभी एक से एक रिश्ते है एक से एक बढ़िया लड़के कोई बीघो ज़मीन का मालिक है तो कोई कितने मकान है अब देख बेटी तेरी है तू जान मैं बस अपनी राय दे सकता था दे दिया|
बड़ा भाई नाराज़ हो गया|
दिव्या की ख़ुशी पल में छू हो गई| अब क्या होगा पिता क्या अपनी बात निभा पाएँगे!
कोविद के पूरे मज़े थे अब पैसे की कोई कमी नहीं थी पिता बिन मांगे ही खर्च दे देते | बाइक और मोबाईल कोविद की दुनिया पूरी मज़े में थी| अपने दोस्तों में वह हीरो था| एक घूंट में बियर पी लेने वाला , रात के सन्नाटे में हाईवे में बाइक से स्टंट करने वाला ,किसी भी लड़की को झट से पटा लेने वाला उनके बीच सिर्फ कोविद ही था| देर रात आने पर भी कोविद पर किसी का ध्यान नही जाता पर दिव्या के कॉलेज से जरा भी देर होने से सबकी तिरछी नज़र उसकी ओर उठ जाती|
दिव्या एक एक दिन यूँ जीती मानों ये उसकी ज़िन्दगी का आखिरी पल हो| हर पल उसे डर लगता की कहीं किसी दिन उसके पिता ये न कह दे कि बस कल से तू कॉलेज नहीं जाएगी|
जिबह में किसी दिन भी जुता देने के डर से वह सहमी रहती|
आखिर बी एस की का रिजल्ट आ गया| दिव्या की उम्मीद से भी कहीं ज्यादा हुआ दिव्या यूनिवर्सिटी टॉप कर गई| पहली बार उसके पिता के चेहरे पर उसने मुस्कान देखी| पर बड़े भाई के चेहरे को देख जो पल में छू भी हो गई|
कोई और भी था जो हमेशा की तरह अपने फेल होने के दुःख से ज्यादा दिव्या की ख़ुशी से खुश था| चुपके से उसे बाइक में बैठा कर पहली बार रेस्टोरेंट ले गया|
‘बहन जो जी में आए ऑडर कर |’
दोनों चहक रहे थे| दिव्या खुश थी कि कोई तो खुश है उसकी खुश में|
तभी कुछ ऐसा हुआ जिसने माहौल बदल दिया | कुछ आवारा लड़के दिव्या पर फब्तियां कसते है| ये देख कोविद के गर्म खून में उबाल आ जाता है और पल में वाद विवाद मार पीट में बदल जाती है| फिर किसी तरह लोगों की भीड़ उन्हें अलग थलग कर देती है पर असल समस्या शुरू होती है तब जब वे घर वापस आते है|
‘लो बस यही होना बाकि था|’
‘पर बापू दिव्या की क्या गलती है?’
‘बेटा टू नादाँ है ये बात तो इसे समझनी है अपने भाई की ओर इशारा करते हुए कहता है छुरी तरबूज पर गिरे या तरबूज छुरी पर हर हाल में बुरा तरबूज का ही होता है समझे|’
दिव्या रोती वहां से चली गई|
कोविद कुछ समझ नहीं पाया और चला गया|
दिव्या के पिता मन मसोज़ कर रह गए अब उन्हें भी अपने भाई की बात सही लगने लगी|
फिर मन ही मन उन्होंने सोच लिया और अपनी पत्नी को बता दिया की जैसे ही अगला अच्छा रिश्ता मिलते ही वे दिव्या की शादी कर देंगे अब आखिर दूसरी बेटी के बारे में भी उन्हें सोचना है|
दिव्या के लिए अब हर अगला पल मुश्किल था पर पता नहीं कैसी उम्मीद थी खुद से की उसने सब भूल कर फिर से पढ़ाई पर अपना पूरा ध्यान लगा लिया|
अपने प्रोजेक्ट के पेपर की तैयारी में लगी थी कि कोई हंगामा सुना|
‘चालीस लाख घर से गायब हो गए – घर है या सड़क!’ कोविद के पिता चीख रहे थे|
‘भैया इस तरह चीखने का क्या मतलब क्या आपका इशारा मेरी तरफ है?’
कोविद छुपा सुन रहा था|
‘मैंने किसी का नाम लिया क्या?’
‘बहुत हो चुका अब हमारा साथ रहना ठीक नहीं – बचे कुचे रिश्ते में भी दरार आ जाएगी|’ बड़ी निराशा भरे स्वर में कहा|
वे जाने को तैयार हुए पर बड़े भाई ने नहीं रोका| उन्होंने सामना बांधा पर भाई ने नही टोका आखिर वे फिर से किराए के घर पर आ गए|
इस बुरे का फायदा दिव्या को हुआ की उसकी शादी की बात थोड़ी मध्यम पड़ गई|
‘दिव्या तुम्हारे प्रोजेक्ट के पेपर मैं केलीफोनिया अपने बेटे के पास भेज रहा हूँ अगर पास हो गए तो तुम्हे वहां की स्कॉलर शीप मिल सकती है|’
दिव्या ने सिर्फ सुन लिया, उसे पता था कि जिसके कल का पता नहीं की क्या होगा इतना ऊँचा सपना कैसे सोचे|
अब दोनों घरों में दूरी हो गई| कोविद कभी कभार दिव्या को कॉलेज में मिलने आ जाता|
‘दिव्या चल मेरे साथ|’
‘कहाँ?’
‘अरे आ तो|’
कॉलेज जाते रास्ते से ही उसे बाइक में बैठकर कॉलेज से पहले ही रोक देता है|
‘अभी तो कॉलेज आगे है|’ दिव्या बाइक से उतरती हुई देखती है कि कोविद अपनी पॉकेट से एक लिफाफा निकलता है|
‘क्या है ये?’
‘ये कोई लेटर है तेरे पुराने घर के पते पर आया चल तुझे पढ़कर सुनाता हूँ|’
दिव्या हैरत से उसकी ओर देख रही थी|
वो देखती है की उससे कुछ कदम की दुरी पर खड़ा कोविद बड़ी तन्मयता से लेटर खोल रहा था|
‘दिव्या जी हेल्लो आपको ये बताते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है कि आपका पेपर सम्मिट ही नही हुआ बल्कि आपको यहाँ स्टडी के लिए निमंत्रित भी किया जाएगा, मैं ये खबर खुद आपको सबसे पहले देना चाहता था इसलिए केलिफोर्निया यूनिवर्सिटी की ओर से पत्र पहुँचने से पहले मैं आपको पत्र भेज रहा हूँ| अब आपके यहाँ आने के रास्ते खुल गए है| जैसा की मेरे पापा ने उस पल मुझसे बिना पूछे जो फैसला किया था उसे मैं आज भी उतने पूरे हर्ष से स्वीकारता हूँ… पर अभी भी आप अपनी ओर से इस निज़ी फैसले को लेने को स्वतंत्र है आखिर ये आपकी ज़िन्दगी है| आप आराम से केलिफोर्निया आए ये मित्र तहे दिल से आपका स्वागत करेगा|’
पत्र एक साँस में खत्म कर उसे हवा में लहराते कोविद मुस्करा कर दिव्या की ओर देखता है
‘देख बापू के हाथ आने से पहले मैंने छुपा लिया था ते लेटर|’
दिव्या लजाती ख़त की ओर बढ़ी पर कोविद हँसते हुए भागा दिव्या उसके पीछे भागी|
‘दे न कोविद|’
‘ले आकर पकड़ ले|’
‘भाई दे न|’
‘आ आ कर ले ले|’ कोविद तेज़ी से हँसा और आगे भागा|
‘बचपन में कभी मुझको पकड़ पाती थी तू!’
दिव्या उसके पीछे भागती है अचानक कोविद थम जाता है|
‘ले पकड़ लिया बचपन में तो तू जीत जाता था अब कैसे हार गया|’
कहते कहते दिव्या का ध्यान जाता है कि कोविद अपना पेट थामे झुक गया था|
‘क्या हुआ कोविद?’
दिव्या घबरा गई|
दर्द कोविद के चेहरे पर फ़ैल गया उसके मुंह से स्वर भी नहीं फूट रहा था|
चंद क्षर्प में दिव्या उसे हॉस्पिटल लेकर भागी|
कोविद का दर्द कम न हुआ| उसे एडमिट कर दिव्या ने घर में फोन किया|
कुछ ही पल में कोविद और दिव्या दोनों के माता पिता आ गए|
‘क्या हुआ दिव्या?’
‘पता नहीं ताऊ जी कोविद के पेट में बेचैनी भरा दर्द अचानक से शुरू हो गया अब डॉक्टर बताएँगे क्या हुआ – आप चिंता न करे सब ठीक होगा|’
तभी डॉक्टर आते दिखे|
सभी उसकी ओर भागे|
‘आप मरीज़ के पिता है जरा आइए इधर – बात करनी है|’
रूम का सन्नाटा और सामने डॉक्टर को देख कोविद के पिता के चेहरे की हवाइया उडी हुई थी|
‘जी कहिए मेरा बेटा ठीक तो है न?’
‘जी अभी तक तो|’
वे अवाक् डॉक्टर की ओर देखते है|
‘आपके बेटे की एक किडनी पूरी तरह से खराब हो चुकी है और अब ये मत कहिएगा की आपको ये भी नहीं पता होगा की आपके बेटे ने शराब की अति से ऐसा हुआ है|’
‘ऐसे कैसे?’ शब्द होठों में ही घड मड हो गए|
‘बहुत बुरी हालात है – आप लोग अपने जवान हो रहे बेटे को पूरा उन्मुक्त छोड़ देते है बर्बाद होने के लिए|’
‘नहीं डॉक्टर साहब मैंने अपने बेटे की हर ख्वाइश पूरी की – अच्छे स्कूल में पढ़ाया, अच्छे कॉलेज में डाला फिर ये सब कैसे हो गया – उसकी तो अभी उम्र ही क्या है|’
डॉक्टर हैरत से उनका चेहरा देखने लगा और वे घिघियाते हाथ जोड़े सामने खड़े रहे|
अबतक सबको कोविद की हालात का पता चल गया| निराशा हताशा का हाथ थामे सबके चेहरे पर पसर गई|
दिव्या कोविद के पास खड़ी द्रवित ह्रदय से अपने भाई की ओर देख रही थी| वार्ड में लेटा कोविद दिव्या की ओर देखता है|
‘ये क्या हालात कर ली अपनी?’ दिव्या के दुखी स्वर पूरी तरह से भीग चुके थे|
‘देख न बहन बचपन में तू हार जाती थी आज मैं हार गया|’
कोविद धीरे से अपनी पॉकेट से लेटर निकालता है|
दिव्या कोविद के पास आ जाती है|
‘ये ले – ये तेरी जीत है बहन|’
ये सुन दिव्या की रुलाई फूट पड़ती है|