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गुरुकुल गौतमनगर दिल्ली में चतुर्वेद ब्रह्म पारायण यज्ञ एवं वार्षिकोत्सव सोत्साह सम्पन्न

ओ३म्

गुरुकुल गौतमनगर दिल्ली देश का वैदिक संस्कृत शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र है जो विगत 83 वर्षों से अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्य कर रहा है। यहां प्रत्येक वार्षिकोत्सव पर वेद पारायण यज्ञ किये जाते हैं। इस वर्ष यहां 37 वां चतुर्वेद ब्रह्म पारायण यज्ञ आर्यजगत की विभूति डा. महावीर अग्रवाल जी के ब्रह्मत्व में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। रविवार 18 दिसम्बर, 2016 21 दिवसीय यज्ञ की पूर्णाहुति का दिन था। प्रातः 8.00 बजे यज्ञ आरम्भ हुआ। यज्ञ के मध्य स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती ने अपने सम्बोधन में कहा कि यज्ञ छोटा करें या बड़ा, यज्ञ का फल यजमान को मिलता है। उन्होंने कहा कि यज्ञ को पूर्ण पवित्रता के साथ करना चाहिये। यज्ञ में यजमानों को पशुओं के चम्र से बनी वस्तुओं बैल्ट व बैग आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिये। स्वामी जी ने यज्ञ के नियम बतायें और व्यवस्था संबंधी सूचनायें दीं। आयोजन में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के युवा आर्य विद्वान एवं प्रोफेसर डा. रामचन्द्र जी भी पधारे हुए थे। आपका यज्ञीय जीवन पर सारगर्भित महत्वपूर्ण सम्बोधन हुआ। डा. रामचन्द्र जी ने कहा कि यज्ञ करने से हम परम पिता परमात्मा की सन्तति बन जाते हैं। यज्ञ करके व यज्ञ की भावना के अनुरूप अपना आचरण बनाकर हम मानव से महामानव बनने का प्रयास करें। उन्होंने कहा कि इसके लिए जीवन में त्याग भाव की आवश्यकता होती है। यदि यज्ञ के अनुरूप अपने मनोभावों को बनाकर उन्हें यज्ञ से जोड़ कर हम यज्ञ करेंगे तो इससे विशेष प्रकार की शान्ति मिलेगी। यज्ञ करने वालों के लिए यज्ञ में उच्चारित होने वाले मन्त्र संजीवनी बन जाते हैं जब हम यज्ञ के मन्त्रों के अर्थों को जानकर उनके द्वारा यज्ञ में आहुति देते हैं और साथ ही उनके अनुसार आचरण भी करते हैं।

डा. रामचन्द्र जी के सम्बोधन के बाद स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी ने गुरुकुल को दिये गये दान की घोषणा की। डा. महावीर जी भी यज्ञ को आगे बढ़ाते हुए यज्ञ के महत्व व लाभों से याज्ञिकों व श्रोताओं को विदित कराते रहे। इस बीच मंच पर डा. महावीर जी और स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती सहित डा. रघुवीर वेदालंकार, स्वामी धर्मेश्वरानन्द सरस्वती, आचार्य धनंजय जी, आचार्य यज्ञवीर जी, ठाकुर विक्रम सिंह जी, श्री अनिल आर्य जी आदि अनेक महानुभाव उपस्थित थे। बहिन गीता झा की कविता लेखन में रुचि है। उन्होंने अपनी स्वलिखित एक कविता प्रस्तुत की। इसी बीच डा. धनंजय आर्य जी के द्वारा श्री मनमोहन कुमार आर्य द्वारा लिखित एक लघु पुस्तक वेद प्रचार का प्रभावशाली स्वरूप: विचार एवं सुझाव’ का लोकार्पण हुआ। स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी ने ठाकुर विक्रम सिंह जी को कुछ शब्द कहने के लिए निवेदन किया। उन्होंने लेखक के लेखन कार्य की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज की पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित होते रहते हैं। उन्होंने घोषणा की कि आगामी किसी अवसर पर वह आर्य लेखकों के सम्मान हेतु कोई योजना तैयार करेंगे। इसके बाद आचार्य अमन सिंह शास्त्री का प्रवचन हुआ। उन्होंने कहा कि आर्यसमाज को चलाने के लिए गुरुकुलों को सींचना होगा। आप गुरुकुल हसनपुर का संचालन करते हैं। उन्होंने कहा कि स्वामी प्रणवानन्द जी आठ गुरुकुलों का संचालन कर रहे हैं। यह उनके द्वारा किया जाने वाला बहुत महत्वपूर्ण कार्य है। हमें उनको हर प्रकार से सहयोग करना चाहिये। उन्होंने कहा कि स्वामी जी का आर्यसमाज की प्रगति व उन्नति में बहुत बड़ा योगदान है। आर्यसमाज वेद, ईश्वर, जीव और प्रकृति को मानता है। उन्होंने कहा कि दूध में सफेदी और पानी में नमक की तरह ही ईश्वर सृष्टि में व्यापक है। आपके बाद गुरुकुल पौंधा देहरादून के आचार्य डा. यज्ञवीर जी का उपदेश हुआ।

डा. यज्ञवीर जी ने अपने सम्बोधन के आरम्भ में कहा कि चतुर्वेद ब्रह्म पारायण यज्ञ पूर्णाहुति की ओर अग्रसर है। मनुष्य को कौन से गुण धारण करने चाहिये? इस प्रश्न को प्रस्तुत कर इसके उत्तर में उन्होंने एक नीतिकार का श्लोक बोला। उन्होंने कहा कि हमें पहला गुण नम्रता को धारण करना है। निर्मलता का गुण धारण किये हुए लोगों का स्वतः ही दूसरे लोगों द्वारा नमन होता है। उन्होंने कहा कि नीतिकार के श्लोक के अनुसार हमें पहला गुण सत्संग प्राप्त करने की इच्छा रखना है। इसके लिए हमें संकल्प करना चाहिये और उसके अनुरुप आचरण करना चाहिये। वैदिक विद्वान डा. यज्ञवीर जी ने कहा कि सज्जनों की संगति करने वाला मनुष्य पूज्य और पूज्यतम हो जाता है। उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि लोहे को अग्नि में तप्त कर उसे इच्छित आकार देने के लिए हथौड़ों से लौह में प्रविष्ट अग्नि को पीटा जाता है जबकि यज्ञ करते समय उसी अग्नि की पूजा की जाती है। उन्होंने कहा कि सत्संगति का परिणाम अच्छा और कुसंगति का परिणाम बुरा होता है। दूसरा गुण उन्होंने बताया कि हमें दूसरों के गुणों से प्रीति रखनी है। उन्होंने कहा कि यज्ञ के ब्रह्मा जी के गुणों से हमें प्रीति करनी चाहिये। किसी से ईष्र्या कर इस अग्नि में जलने से हम कुछ नहीं बनेंगे। ऐसा कहा जाता है कि दूसरे के परमाणु के बराबर गुण को पर्वत मानकर धारण करना चाहिये। दूसरों में बुराईयां देखने वाले की एक उंगली बुराई वाले व्यक्ति की ओर तथा तीन उंगलियां अपनी ओर होती हैं। यह तीन उंगलियां संकेत करती हैं कि हम जिसकी बुराई कर रहे हैं उससे तीन गुणा बुरे तो हम हैं। आचार्य यज्ञवीर जी ने मनुष्य का तीसरा गुण गुरुओं के प्रति विनम्रता को बताया। उन्होंने कहा कि गुरुओं को महत्व दिये बिना विद्या प्राप्त नहीं होती। चैथा गुण विद्वान वक्ता ने विद्या व्यस्न को बताया। उन्होंने कहा कि जो विद्या का व्यस्न रखते हैं वह जीवन में आगे बढ़ते हैं। आचार्य जी ने कहा कि मनुष्य में पांचवा गुण एक पत्नी व्रतधारी का होना चाहिये। उन्होंने इसके लिए श्री कृष्ण व माता रूक्मणी जी का उदाहरण दिया और कहा कि श्री कृष्ण जी की तरह अपनी संतानों को प्रद्युम्न की भांति बनाना चाहिये। छठा गुण बताते हुए आचार्य यज्ञवीर ने कहा कि संसार में शेर को वश में करने वाले तथा हाथी का सिर कुचलने वाले लोग मिल सकते हैं। परन्तु इससे बढ़कर मनुष्य को काम व अपनी इतर कामनाओं सहित अपनी सभी इच्छाओं को वश में रखना व उन्हें नियंत्रित करना है। इसी के साथ आचार्य यज्ञवीर जी का प्रवचन समाप्त हुआ। इसके बाद स्वामी प्रणवानन्द जी ने कुछ और दानियों के नामों की घोषणा की और बताया कि आज के यजमान श्री अनिल काम्बोज जी ने आज अतिथियो के भोजन के लिए एक लाख रूपये दान में दिये हैं। उन्होंने एक गुप्ता परिवार की चर्चा कर कहा कि इन्होंने एक लाख रूपये पहले दिये थे और आज भी इकयावन हजार रूपये गुरुकुल के कार्यों के लिए प्रदान किये हैं।

यज्ञ के ब्रह्मा डा. महावीर जी ने महाराज भृतहरि का उल्लेख कर कहा कि सूर्य प्रतिदिन उदय होता और अस्त हो जाता है। सूर्य के आने जाने की तरह से ही हमारा जीवन व आयुरूपी जल स्रवित होता रहता है। हम शिशु से बालक, फिर किशोर, युवा और वृद्ध हो जाते हैं। कुछ काल बाद जीवन समाप्त हो जाता है। संसार मे नाना प्रकार के कार्य हैं, व्यवसाय हैं व दुनिया के अनेक झमेले हैं। समय का बीतना मनुष्य को पता नहीं चलता। हम युवक को बूढ़ा होते देखते हैं, जीवन में वह समय भी आता है कि जब वह वृद्ध बोल नहीं सकता, चल नहीं सकतां। कोई सुखी है तो कोई दुःखी है। बालक मूलशंकर ने अपना घर छोड़ा था। इन घटनाओं को हमने पढ़ा व जाना है। प्रमाद की मदिरा पीकर लोग मतवाले हो जाते हैं। आप ऐसे लोगों व कार्यों से दूर रहकर यज्ञ कर रहे है। इस लिए आप अत्यन्त भाग्यशाली है। डा. महावीर जी के इन वचनों के बाद चतुर्वेद ब्रह्म पारायण यज्ञ की पूर्णाहुति सम्पन्न हुई। पूर्णाहुति सम्पन्न होने के बाद आर्यजगत की महान विभूति व गीतकार पं. सत्यपाल पथिक जी ने यज्ञ प्रार्थना सम्पन्न कराई। यज्ञ के बाद पथिक जी ने अपना एक बहुत ही लोकप्रिय भजन जिसे आपकी सर्वोत्तम रचना कहा जाता हैं, प्रभु तुम अणु से भी सूक्ष्म हो, प्रभु तुम गगन से विशाल हो, मैं मिसाल दूं तुम्हें कौन सी, दुनियां में तुम बेमिसाल हो। प्रभु तुम अणु से भी सूक्ष्म हो’ उसे गाकर प्रस्तुत किया। पथिक जी को अपना यह भजन बहुत प्रिय है, यह बात वह स्वयं भी कहते हैं। जब पथिक जी ने यह भजन सुनाया तो हम आर्यजगत के वैदिक साहित्य के विख्यात प्रकाशक श्री अजय कुमार आर्य जी के साथ बैठे थे। हम दोनों ने स्वयं इस भजन को मन मस्तिष्क को रोमांचित करने व ईश्वर के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने वाला पाया। पथिक जी के भजन के बाद डा. महावीर अग्रवाल जी ने कहा कि उत्तराखण्ड भारत का एक मात्र राज्य है जहां संस्कृत को दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया गया है। उन्होंने कहा कि मेरा रोम रोम गुरुकुल और वेदमाता के ऋण से ऋणी है। मैं जीवन में कभी इन ऋणों से उऋण नहीं हो सकता।

शीर्षस्थ वैदिक विद्वान डा. महावीर मीमांसक जी ने श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए कहा कि महर्षि दयानन्द जब वेद प्रचार करने निकले तो उनके सामने आंतरिक व बाहरी चुनातियां थीं। उनसे पूर्व के कुछ आचार्यों ने वेदों के अर्थों का अनर्थ किया हुआ था जिसका उन्हे सुधार करना था। उनके समकालीन लोग विकृतियों से युक्त ऐसे वेदभाष्य पढ़कर उनके अनुरूप अपनी मिलावटों का मिथ्या प्रचार कर रहे थे। इसका उपाय था कि आर्ष पाठ विधि को प्रचारित एवं प्रचलित करना। अतः स्वामी दयानन्द जी ने आर्ष पाठ विधि का प्रचार करते हुए उसके महत्व पर प्रकाश डाला। विद्वान वक्ता ने कहा कि महर्षि दयानन्द अपने शिष्य पं. गुरुदत्त विद्यार्थी को प्रेरणा कर गये जिससे उन्होंने वेद विरोधियों की मिथ्या मान्यताओं व मिथ्या वेदार्थों का खण्डन कर वेदों के यथार्थ अर्थों व महत्व से देश व विदेश के लोगों को परिचित कराया। उन्होंने कहा कि स्वामी दयानन्द जी ने वेद विद्या अपने विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द जी से प्राप्त की थी। डा. महावीर मीमांसक जी ने यह भी बताया कि स्वामी विरजानन्द जी ने स्वामी दयानन्द को अपना शिष्य स्वीकार करने से पूर्व उन्हें उनके अनार्ष ग्रन्थों को यमुना नदी में बहा आने का आदेश दिया था। विद्वान वक्ता ने आचार्य पाणिनी उनके कार्यों की चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि आचार्य पाणिनी ने सारी संस्कृत भाषा को चार हजार सूत्रों और एक हजार श्लोंको में बांध दिया। भाषा विज्ञान इसके जनक की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि भाषा विज्ञान की खोज पाणिनी की अष्टाध्यायी के आधार पर ही हुई है। आचार्य महावीर मीमांसक जी ने निरुक्त ग्रन्थ की चर्चा भी की। उन्होंने कहा कि भाषा के अर्थ कैसे निकलते हैं, इसके तरीके निरुक्त में दिये गये हैं। शीर्षस्थ वैदिक विद्वान महावीर मीमांसक ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने अपना वेद भाष्य निरुक्त और निघण्टु के आधार पर किया है। उन्होंने कहा कि हमारे सभी गुरुकुल वेदों के विद्वान तैयार करने क कारखाने हैं, इसीलिए आप मुक्त हस्त से दान देकर गुरुकुलों की सहायता करते हैं। अपने वक्तव्य को विराम देते हुए उन्होंने कहा कि गुरुकुलीय शिक्षा से तैयार होने वाले विद्वानों के द्वारा ही वेदों से संबंधित अविद्या दूर होती है।

ऋषि भक्त आर्य संन्यासी और आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश के यशस्वी महामंत्री स्वामी धर्मेश्वरानन्द सरस्वती ने अपने सम्बोधन में कहा कि अच्छा बेटा सोने की तरह मूल्यवान होता है। यह अथर्ववेद का सन्देश है। उन्होंने कहा कि अथर्ववेद की इस शिक्षा को हमें अपने परिवार से जोड़ना चाहिये। इसके लिए हमें अपने बच्चों को वेदों की शिक्षा के अनुसार योग्य अर्थात् स्वर्ण बनाना होगा। उन्हें यशस्वी व कीर्तिवान् बनाना होगा। स्वामी जी ने अपने जीवन का उदाहरण देते हुए कहा कि वह एक मुस्लिम अध्यापक रफीक अहमद से अंग्रेजी पढ़़ते थे। उन्होंने जब संस्कृत पढ़ना आरम्भ किया तो गुरुजी को इसका पता चला। वह संस्कृत विद्या के महत्व से अपरिचित थे, अतः उन्होंने विरोध करते हुए मुझे अपने समय को अच्छे कार्यों में लगाने की प्रेरणा की। बालक धर्मेश्वरानन्द जी ने उन्हें बताया कि गुरुजी संस्कृत में अ, इ व उ 18 प्रकार का होता है। ऋ 30 प्रकार का होता है। उन्होंने अपने मुस्लिम गुरुजी को संस्कृत के गुरुजी से मिलवाया तो वह प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे संस्कृत पढ़ने के लिए अपना आशीर्वाद दिया। स्वामी धर्मेश्वरानन्द जी ने स्वामी प्रणवानन्द जी के विषय में कहा कि वह वेद व स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के स्वप्नों को साकार कर रहे हैं। श्रोताओं को उन्होंने कहा कि आप सब उनके सहयोगी होने के कारण प्रशंसा के पात्र हैं। इसके बाद कार्यक्रम में उपस्थित अमेरिका निवासी व गुरुकुल के सहयोगी दानवीर श्री जयभगवान जागदान का सम्मान किया गया। बताया गया कि श्री जयभगवान अमेरिका में प्रतिदिन गायत्री मन्त्र से यज्ञ करते हैं। आप मूलतः पानीपत के रहने वाले हैं और 40 वर्ष की आयु में अमेरिका गये थे। आप अमेरिका के मिशीगन में रहते हैं। इसके पश्चात गुरुकुल के प्रतिभाशाली ब्रह्मचारी व आचार्यों का सम्मान किया गया। उन्हें प्रशस्ति पत्र सहित शाल भी भेंट किया गया। इन सम्मानित हुई विभूतियों में देहरादून गुरुकुल के ब्रह्मचारी श्री शिवदेव आर्य जी भी हैं। आप गुरुकुल में अपने अध्ययन सहित गुरुकुल पौंधा, देहरादून से प्रकाशित अन्तराष्ट्रीय स्तर की पत्रिका ‘‘आर्ष ज्योति” का सम्पादन करते हैं और उसका समस्त कार्य देखते हैं। उड़ीसा गुरुकुल के आचार्य बुद्धदेव, उड़ीसा के कन्या गुरुकुल की आचार्या शारदा जी और दिल्ली गुरुकुल में कार्यालय का कार्य देखने वाले आचार्य बलदेव शास्त्री भी सम्मानित किये गये।

स्वामी प्रणवानन्द जी द्वारा संचालित आठ गुरुकुलों के कुलपति और एमेटी विश्व विद्यालय के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डा. अशोक चैहान ने अपने संक्षिप्त सम्बोधन में कहा कि उनके माता व पिता गुरुकुल में ही पढ़े थे। इसी कारण वह सर्वत्र सम्मान पा रहे हैं। उन्होंने कहा कि वह विश्व को दिखाना चाहते हैं कि आर्यसमाज से अच्छा संसार में कुछ नहीं है। आप प्रातःकाल ही दुबई से दिल्ली पहुंचे थे। आपने बताया कि दुबई व अमेरिका में भी आपने अपनी शाखायें खोली हैं। आपने कहा कि ईश प्रार्थना में बहुत शक्ति है। जो लोग गुरुकुल गौतमनगर आते हैं वह सब पुण्य के भागी हैं। उन्होंने स्वामी जी को कहा आप गुरुकुलों को बढ़ाते रहें। आपके बाद सेवानिवृत आईपीएस डा. आनन्द कुमार ने अपने सम्बोधन में कहा कि स्वामी दयानन्द का सबसे बड़ा उपकार यह है कि उन्होंने हमें भयमुक्त कर दिया। वरिष्ठ विद्वान डा. रघुवीर वेदालंकार जी ने दान की महिमा पर विस्तार से बोलते हुए कहा कि पवित्र कमाई करने, उसे गुरुकुल व यज्ञ आदि कार्यों में दान करने से जीवन श्रेष्ठ व उत्तम बनता है। इसी के साथ कार्यक्रम समाप्त हुआ। हम भी गुरुकुल से चलकर मेट्रो से नई दिल्ली स्टेशन आये और वहां से देहरादून की रेलगाड़ी से रात्रि अपने निवास लौट आये। इस प्रकार गुरुकुल का 83 वां वार्षिकोत्सव एवं 37 वां चतुर्वेद ब्रह्म पारायण यज्ञ सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ।

 –मनमोहन कुमार आर्य