“दोहा
श्रीमती जी सुखी हुई, बीत गया शुक्रवार
गजल अधूरी रह गई, कलम हुई लाचार।।
लिखने बैठा गीतिका, मौसम था खुशहाल
आँख मिचौली खेलने, लग गया अंतरजाल।।
देख देख मेरी दशा, हर्षित हुआ पुलाव
व्यंगवाण मन भा गए, मानों ठंड अलाव।।
मेरी बारी आज है, निकला सूरज धूप
शनिवार बजरंगबली, दोहा सृजन अनूप।।
तार तार होने लगे, बिना तार के तार
जुड़ते रुकते बहकते, अंतरजाल बीमार।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी