इंसानियत
दिसंबर का महिना था । ठंडी गजब ढा रही थी । सर्दी में सड़कें कुछ जल्दी ही सुनसान हो जाती हैं । इक्का दुक्का लोग ठण्ड में ठिठुरते हुए भी मौसम के वर्फ़बारी का मजा ले रहे थे । बीच बीच में आवारा कुत्तों के भौंकने की आवाज वातावरण की शांती भंग कर देती । राजेश बस स्टॉप पर बस से उतर कर अपने घर की तरफ बढ़ रहा था । आज ऑफिस में सर्वोत्तम सहृदय लोकप्रिय कर्मचारी के रूप में उसका सम्मान किया गया था । उस स्वागत समारोह की मीठी यादों को अपने ख्यालों में सहेजते वह आगे बढ़ रहा था कि तभी एक मरियल सा कुत्ता उसकी तरफ बढ़ा । राजेश ने उसे हांक दिया और आगे बढ़ने लगा । कुछ पीछे हटकर कुत्ता फिर उसके पीछे पीछे चलने लगा । तंग आकर राजेश ने उसे मारने के लिए हाथ में पत्थर उठा लिया था और उसे मारने ही वाला था कि वहीँ कम्बल लपेटे फूटपाथ पर बैठा एक भिखारी दौड़ता हुआ कुत्ते की तरफ लपका । राजेश के हाथ जहाँ के तहां रुक गये ।
उस आदमी ने कुत्ते को अपनी गोद में उठा लिया और अपने कम्बल से ढँक कर पुनः वहीँ फूटपाथ पर बैठ गया । उस इन्सान की इंसानियत को महसुस कर कुत्ता उसकी गोद में दुबक गया और कृतज्ञता से अपनी पूंछ हिलाने लगा ।
राजेश पुनः अपने घर की तरफ बढ़ने लगा । लेकिन अब उसके मन में एक नयी हलचल थी । क्या वह वाकई उस सम्मान का हकदार था ? क्या इन्सान का ह्रदय सिर्फ इंसानों के लिए ही द्रवित होना चाहिए ?