मुनिया
सर्द कोहरे से भरे सवेरे में
जब कपकपा जाती है हड्डियाँ
दम साधने की कोशिश के बावजूद
किटकिटा ही जाते है हमारे दाँत
साहब की लाडली बिटिया के
फटे जूते और पुराना ऊन वाला कुर्ता
मुनिया की सांसो को
बचा ही लेता है उखड़ने से
माँ का सारा दिन ही तो
निकल जाता है
पड़ोस के रहबरदारों के घर पर
बर्तन बासन में
और बेओरे बाप की गालियों का
भोजन भी तो शामिल है
मुनिया के माँ के दिनचर्या में
ऐसे में वो मुनिया ही तो है
जो जमा देने वाले ठंड में
मुस्काती हर सुबह
पहुंच जाती जंगलों की तरफ
ताकि वो बीन सके कुछ लकड़ियाँ
और माँ जला सके समय पर चुल्हा
परोसा जा सके भोजन
ताकि उन गालियों के बीच भी
जिंदगी घिसटती ही सही
पर चलती रहे
और वो साथ जो कुत्ता देख रहे हो न
मुनिया का प्यारा टाॅमी
हर सुबह मुनिया के साथ ही होता है
पिता सा दृढसंकल्प लिए
उसके इस कठिन यात्रा में
उसे सचेत करता है और
महफूज रखता है हर खतरे से
नन्ही मुनिया के जेहन में
कई बार सवाल आते है कि
उसके पिता को इंसान
और टाॅमी को पशु क्यों कहते है लोग
अमित कु.अम्बष्ट ” आमिली ”