ग़ज़ल – वो सुर्खरु चेहरे पे कुछ आवारगी पढ़ने लगी
शर्मो हया के साथ कुछ दीवानगी पढ़ने लगी।
वो सुर्खरूं चेहरे पे कुछ आवारगी पढ़ने लगी ।।
हर हर्फ़ का मतलब निकाला जा रहा खत में यहां ।
खत के लिफाफा पर वो दिल की बानगी पढ़ने लगी ।।
वह बेसबब रातों में आना और वो पायल की धुन ।
शायद गुजरती रात की वह तीरगी पढ़ने लगी ।।
गोया के वो महफ़िल में आई बाद मुद्दत के मगर ।
ये क्या हुआ उसको जो मेरी सादगी पढ़ने लगी ।।
कुछ हसरतों को दफ़्न कर देने पे ये तोहफा मिला ।
वो फिर तबस्सुम को लिए मर्दानगी पढ़ने लगी ।।
बहकी अदा तो वस्ल के अंजाम तक लाई उसे ।
पैकर पे आकर फिर नज़र शर्मिंदगी पढ़ने लगी ।।
नज़दीकियों के बीच में पर्दा न कोई रह गया ।
मेरी जलालत में मेरी बेपर्दगी पढ़ने लगी ।।
सहमी हुई थी आँख वो सहमा मिला था दिल तेरा ।
कुछ हिज्र पर गमगीन था नाराजगी पढ़ने लगी ।।
खामोशियाँ थीं लफ्ज पर जज्बात फिर भी थे जवाँ ।
नज़रों से निकली हुस्न की वो बन्दगी पढ़ने लगी ।।
ये आधियों का जुर्म , पर झंडा वहीँ कायम रहा ।
अब वो हमारे इश्क़ की हर तिश्नगी पढ़ने लगी ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी