।। दलित दलितहि लखै ।।
किसने देखा मुझे..?
फटे-चीथड़ों में
मनु-मरूभूमि में
अधनंगे भटकता था मैं
रेगिस्तान की रेत चहुँओर
कड़ी धूप में
भूख और प्यास के दरद में
जीवन मरर्म की तलाश
आग की ज्वाला रही
हरपल मेरे अंदर।
किसने पहचाना मुझे.?
आधी रात में अपलक बैठे
दलित वेदना को ढोनेवाले
तेज से तेज चलनेवाले
पीड़ामय जग के परिचायक
दलित अस्मिता का चेहरा दिखाते
वे मुझे देख रहे हैं
आँसू पोंछने का कहते..
भाई का संबोधन करते..
सिर पर हाथ फेरते
स्वर में स्वर मिलाते
धीरज का पाँव देते..
युग-युगों के दलित अन्याय पर
आवाज़ उठाने का
आक्रोश का स्वर मुझे देते..
मुश्किलों को सामना करने का
मानवता के
उत्तुंग शिखर का राह दिखाते
वे हिमायती हैं।