मधुगीति : हर हाल में गुज़रते रहे !
हर हाल में गुज़रते रहे, कारवाँ यहाँ;
मायूस मन हुए भी हो क्यों, माज़रा है क्या !
तारे सितारे चलते रहे, मंज़िलें कहाँ;
नाचें निहारिकाएँ कहाँ, जाने ना जहान !
सब शून्य में टिके हैं, मिले अंध-कूप उर;
सुर मिलाए चले हैं, नियन्ता पै रख नज़र !
खेले सभी से वे हैं रहे, सूक्ष्म रूप रख;
रचना किए विराट भुवन, भास्वरी हृदय !
आसान है विलय होना, प्रलय लय को बिन तके;
‘मधु’ मर्म समझ उनका, तैर तरना सीख ले !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’