सीख
“अगर आपका सेलेक्शन हो जाता है तो आपको यहाँ मुंबई आना पड़ेगा। तब आप अपनी फैमली लाइफ कैसे मैनेज करेंगे, मि. सैनी?”
“सॉरी सर…..मैं कुछ समझा नहीं?”
“आई मीन टू से ….कि आपकी वाइफ तो दिल्ली में पढ़ाती हैं तो क्या आप उनकी नौकरी छुड़वाकर अपने साथ यहाँ लाएंगे या…फिर…क्या…कैसे करेंगे?”
“ओह….नहीं सर। उसे नौकरी छोड़ने के लिए तो मैं हरगिज़ नहीं कहूँगा। मगर हम दोनों…..”
“भला क्यों? उनकी नौकरी में रखा क्या है? टेम्पररी टीचर की तनख़्वाह तो कुछ भी नहीं होती और आपकी अच्छी-खासी सैलरी होगी और घर के साथ-साथ आपको आने जाने की व्यवस्था दी जाएगी। वह तो आराम से आपके साथ रह सकती हैं। फिर …?”
“सॉरी सर! लेकिन बात मेरे कमाने की, मेरी वाइफ के कमाने की, अच्छी तनख़्वाह या सुविधा-आराम की है ही नहीं। बात यह है कि शी इज़ एन इंटेलेक्चुअल। उसने भी उतनी ही मेहनत से पढ़ाई-लिखाई की है जितनी मैंने या किसी ने भी की है। इस स्तर पर आने के बाद इंसान की कुछ इंटेलेक्चुअल नीड्स होती हैं, बौद्धिक आवश्कताएं। ये न मिलें तो आदमी को फ्रस्टेशन होती है और मैं नहीं चाहता की वो फ्रस्टेट हो।”
मैं यह जवाब पाकर स्तब्ध रह गया। उसका इंटरव्यू तो कुछ देर और चला। मगर मैंने सवाल पूछना छोड़ दिया था। पैनल के अन्य मेम्बर उससे सवाल पूछ रहे थे। मैं तो बस उसकी बातों की गहराई में डूबा हुआ था।
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शाम का समय था। मैं बालकनी में बैठा आज का अख़बार पढ़ रहा था। अक्सर ऐसा ही होता है। मैं क्या करूँ; दिन में चाह कर भी पढ़ नहीं पाता। यहाँ तक कि सोचता हूँ कार में ही ऑफिस आते-जाते पढ़ लूँ, तो सड़क के गड़्ढे मन उचाट कर देते हैं। और आजकल के जीवन में तो अपने आस-पास की जानकारी इकठ्ठी करने की ऐसी होड़ लगी है; ऐसी होड़ लगी है कि जिसे यह जानकारी न हो वह निरा-निपट मूर्ख है। अरे पढ़े-लिखे होने का मतलब ही है देश-जहान की जानकारी होना।
तो, ख़ैर, मैं तो अख़बार पढ़ रहा हूँ। बालकनी में ठंडी हवा चल रही है और उस हवा में उस चमेली की सुगंध बह रही है जो पत्नी जी ने लगाए थे। अहा हा! मुझे ऑफिस के स्ट्रेस से पूरी तरह मुक्त कर रहे हैं। उन्हें बाग़बानी का बड़ा शौक है। जहाँ गया हूँ ख़ूबसूरत पेड़-पौधे की छोटी-मोटी बगिया तो उन्होंने उगा ही दी।
यह लो। मेरी पत्नी जी चाय लेकर हाज़िर हुईं। वाह! क्या बात है, लगा जैसे इसी की तो ज़रूरत थी। माहौल और ख़ुशनुमा हो गया। मैंने चाय लेते हुए पत्नी जी का चिंतित चेहरा देखा।
चाय की पहली ही चुस्की में सुबह का इंटरव्यू दिमाग़ में फ्लैश हुआ। बौद्धिक आवश्यकताएं। मेरी पत्नी भी तो पढ़ी-लिखी है, उसकी बौद्धिक आवश्यकताएं?
मैंने कभी सोचा ही नहीं। सोचना तो दूर, मैंने तो उसकी अच्छी-ख़ासी बैंक की नौकरी छुड़वा दी; यह कहकर कि प्राइवेट नौकरी को कौन पूछता है, आजकल? हालाँकि इसके पीछे मेरा अपना ही अहम छुपा था। नौजवान था, बस किसी ने समझा दिया, और मैंने समझ भी लिया कि मेरे आदमी होने का क्या फ़ायदा अगर बीवी को बाहर जाना पड़े। किसी ने समझा दिया और मैंने समझ लिया कि घर के बाहर की मेरी और घर के अंदर की उसकी ज़िम्मेदारी है। यह नहीं कि बाहर और अंदर की बराबर ज़िम्मेदारी दोनों की हो सकती थी। और इसलिए मैंने देखा कि उसे बाहर न जाना पड़े।
मैं दु:खी हुआ; इतना कि चाय की चुस्की का स्वाद मिट गया। अपना दु:ख कम करने के इरादे से मैंने पत्नी से पूछा –“क्या बात है? कुछ टेंशन में लग रही हो?”
यह एहसान कर मैं बड़ा खुश हुआ। मैंने यह अहसान पहले भी किए हैं क्योंकि अब तक यह अहसान करते समय ऐसी भावना आती थी कि जैसे उसकी टेंशन मेरी टेंशन नहीं है क्योंकि मेरी टेंशन तो घर के बाहर वाले कामों की होती है, जिसमें उसका कोई सहयोग नहीं होता। घर की किसी टेंशन में हाथ बंटाना तो दूर, पूछ भी रहा हूँ, तो एहसान ही तो कर रहा हूँ।
“पिंकी स्कूल की पिकनिक जाने की ज़िद कर रही है। अकेले कैसे उसे छोड़ दूँ? आज-कल कहीं किसी का भरोसा कहाँ रह गया है…”
पत्नी ने आज्ञाकारी चारक की तरह मेरी प्रजा की सूचना मुझ तक पहुँचाई। मैं पहले तो ख़ुश हुआ। चाय की चुस्की का स्वाद लौट आया, जैसे मुझे प्रायश्चित का कोई छोटा सा मौक़ा मिला हो। अभी चुस्की पूरी नहीं की थी कि पत्नी ने अपनी बात पूरी की “…मगर मान ही नहीं रही है।”
मुझे फिर सुबह का इंटरव्यू याद आया। उस इंटरव्यू को याद करने के साथ ही मेरे दिमाग़ की कल्पना शक्ति ने ऐसी ऐड़ लगाई कि मैं दिल्ली में बैठी मिसेस सैनी की कल्पना तक कर गया, जो किसी प्राइवेट स्कूल में टीचर होंगी और जिनमें इतनी कूवत है कि वे बिना पति, बिना सहारे के (हाँ…तो पति से बड़ा सहारा कोई सहारा थोड़े ना होता है) वहाँ अपना करियर बना सके और इस; जैसा कि अभी-अभी पत्नी जी ने कहा; बिना भरोसे की दुनिया में अकेले रह सकें।
मिसेस सैनी के ख़याल के साथ ही कल्पना शक्ति ने फिर ऐड़ लगाई और मैं दिमाग़ के धागे बुनने लगा कि पिंकी की आदर्श पढ़ाई पर हम अपना सर्वस्व त्याग रहे हैं। पैसे से लेकर मियां-बीवी का श्रम तक। फिर बड़े होकर पिंकी का किसी बड़े पद के लिए सलेक्शन होना कोई दीगर बात नहीं। ऐसे में अगर उसे दौरों और निरीक्षणों पर शहर-दर-शहर जाना पड़ा तो? हर समय तो हम मियां-बीवी उसके साथ न रहेंगे। उसे आज से ही बाहर की दुनिया में न ढकेलेंगे, तो भला आगे के लिए रास्ता कैसे तैयार होगा?
यक़ीन मानिए यह सब सोचने में मुझे कोई मिलीसेकेंड भी न लगे होंगे और मैंने पत्नी की बात पूरी होते-होते ही, अपनी बात मुँह से टपका दी।
“क्लास के और बच्चे भी तो जा रहे होंगे न?”
“हाँ…मगर पिंकी को कभी अकेले कहीं भेजा नहीं।”
“जाने दो उसे पिकनिक पर। कभी अकेले कहीं भेजा नहीं है, तो कभी नहीं भेजेंगे क्या? कभी न कभी तो भेजना पड़ेगा? अभी से क्यों नहीं?”
इतना कहकर मैं अपने आप को पापमुक्त समझने लगा। मुझे लगा, अपने पुरुषत्व के नीचे अपनी पत्नी को कुचलने के पाप से मुझे इसी क्षण मुक्ति मिल गई और अपनी बेटी को आज़ादी देकर, मैं भी आज़ाद हो लिया।
मैं अपनी इस सोच के लिए मन ही मन अपनी पीठ थपथपा रहा था। अपने आप को मैं इस समय मि. सैनी से भी बड़ा महसूस कर रहा था। हाँ सोच में बड़ा, और बहुत बड़ा।
पत्नी जी ने मुझे आश्चर्य से देखा। उनके आश्चर्य ने मुझे बहुत बड़े से बहुत छोटा बना दिया, बहुत ही छोटा, आस-पास के संसार के सारे लोगों से भी छोटा। उनका आश्चर्य बहुत सरल था। मैंने ही उसे क्लिष्ट बना लिया।
उन्हें तो सिर्फ़ इतना आश्चर्य था कि मैंने भला पिंकी को इस भरोसे के नाक़ाबिल संसार में जाने के लिए कैसे छोड़ दिया?
मगर मैं उनकी आँखों के आश्चर्य के पार भी कुछ पढ़ रहा था। मैं पढ़ रहा था मेरे दोगले होने की गाली। यह भला दोहरा मापदंड कैसा? अपनी बेटी के लिए तुमने संसार के सारे पिंजरे खोल दिए। मगर किसी और की बेटी, जिसे तुम ब्याह कर लाए थे; जो तुम्हारी ज़िम्मेदारी थी; उसे तुमने कितने पिंजरों में रखा? एक के अंदर एक, एक अंदर एक पिंजरा; जाने कितने पिंजरे?
इस एक सोच ने मुझे एकदम छोटा कर दिया, इतना छोटा जितना कि मि. सैनी के पैर का अंगूठा भी न होगा। चाय की चुस्की का स्वाद फिर ख़तम हो गया… और चाय भी।
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मैं अपने केबिन से बाहर निकला तो मेरे सहकर्मी श्री सुजित दास बाहर ही खड़े मिल गए। उन्होंने मेरा परिचय एक नौजवान से कराया। एकदम चुस्त डील-डौल वाले नौजवान से जिसकी माथे के बाहर तक झाँकती जुल्फें हम आधे गंजों को चिढ़ा रही थीं। उसकी सपाट शर्ट, हमारी शर्टों से ढुलकती तोंद को अंगूठा दिखा रही थी।
मैंने उससे हाथ मिलाया और हाथ मिलाकर मैं दु:खी हो गया। मैं इस लिए दु:खी नहीं हुआ क्योंकि उसके हाथ अच्छे नहीं थे या फिर उसके अंग-प्रत्यंग के चिढ़ाने से मैं चिढ़ गया था। मैं तो इसलिए दु:खी था क्योंकि उस नौजवान की जगह मैं, किसी और नौजवान की अपेक्षा कर रहा था। मि. सिंह की जगह मि. सैनी की।
इस पद पर मि. सैनी का चयन होना मैंने तय मान लिया था। उनको तो सबसे अधिक नंबर दिए थे मैंने। मि. दास के विभाग में हुई इस नई नियुक्ति से मैं खुश नहीं था। मगर मैं कुछ कर भी नहीं सकता। मेरा वास्ता केवल साक्षात्कार बोर्ड में बैठकर नंबर देना था। बाक़ी चयन जिसका भी हो, वह तो दास के अंडर ही काम करेगा।
यह सेलेक्शन बोर्ड का गलत नियम है। मैं इसके सख़्त ख़िलाफ हूँ। नियुक्ति दास के विभाग की है, तो साक्षात्कार लेने का हक़ भी उन्हें दिया जाना चाहिए। पर नहीं संस्था तो उल्टे उसको ही चुनने को भेजती है जिसका कोई लेना-देना न हो।
ख़ैर! अब मुझे क्या? मेरा तो बस इतना ही सोचना था कि मि. सैनी का चयन हुआ होता तो इसी फ्लोर पर उसे देख-मिलके, मुझे कुछ और भी सीखने का अवसर प्राप्त होता। जब अदने से साक्षात्कार ने मुझ में इतना परिवर्तन किया, तो जाने उसके यहाँ होने से क्या-क्या लाभ होता?
मि. सिंह की हंसी ने मेरा ध्यान भंग किया। हंसी भी काबिल-ए-तारीफ है इसकी। उसकी हंसी ने न केवल मेरा ध्यान भंग किया बल्कि मेरे सोच की धारा को भी मोड़ दिया। अब तक मैं मि. सैनी के न चुने जाने पर मलाल कर रहा था। पर अब मैं सोचने लगा था कि यदि मि.सिंह को चुना गया है तो इन में भी कुछ गुण होंगे। शायद बेहतर ही हों। हो सकता है मि. सिंह से भी मुझे कुछ सीखने को मिले। अपने आपको यह सांत्वना देते हुए, मैं जिस काम से केबिन के बाहर निकला था, अब उसी राह निकल लिया।
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शाम का समय था। आज मैं पत्नी के साथ मार्केट आया था। वो ख़ुद चकित थी कि आज मैंने इतनी ज़हमत उठाई तो उठाई कैसे? मगर मैंने उसे चकित रहने दिया और अपने मन की करता गया।
पत्नी जी अपने गार्डन के मच्छरों से छुटकारा पाने के लिए लेमन ग्रास का पौधा लगाना चाह रही हैं, जिसके लिए स्टोर में गमला देख रही हैं। तब तक मैं लिस्ट में दिया बाक़ी सामान स्टोर के दूसरे हिस्से से बटोर लाऊँ ताकि समय की बचत हो सके।
मैं घूमते-घूमते उस सेक्शन में पहुँचा जहाँ दूध में मिलाए जाने वाले पाउडरों के खूबसूरत पैकेजिंग वाले डिब्बे सजाए थे, अलग कंपनी का अलग रंग दूर से ही दिख रहा था, फिर पास से तो रंगो का मेल लग रहा था। वहीं एक चॉकलेट का स्टैंड भी था, जिस पर एक ही कंपनी के अलग-अलग वज़न के चॉकलेट सजाए हुए थे। दस ग्राम से लेकर करीब ढाई सौ ग्राम तक।
मेरी नज़र उस स्टैंड के सामने खड़े एक दंपती पर गई जो इस पर चर्चा कर रहे थे कि बड़ी चॉकलेट ली जाए या छोटी या फिर गिफ्ट पैक। अरे यह तो मि. सैनी है। मैं उसी ओर देखता रहा है। मुझे जाने क्यूँ मिसेज सैनी को देखने की उत्सुकता हुई। मगर उनकी पीठ मेरी ओर थी और मि. सैनी उनके साथ, किसी हाई लेवल मिटींग में की जा रही चर्चा जितने, बिज़ी थे। जब उनकी समस्या सुलझी, तो मिसेज सैनी ने स्टैंड से गिफ्ट पैक उठाया और मि. सैनी को इतनी फुरसत हो सकी कि वे इधर-उधर देख सकें और इधर-उधर देखते हुए मुझे भी देख सकें।
“अरे! हैलो सर।”
वह अपनी पत्नी को पीछे छोड़ मेरे पास आकर खड़ा हो गए।
“हैलो। आप यहाँ? अभी भी शहर में ही हैं?”
“हाँ सर इंटरव्यू के लिए कुछ दिन की छुट्टी ली थी। कल निकलना है। एक रिश्तेदार के घर मिलने जा रहे थे तो यह शॉपिंग कॉम्प्लेक्स दिखा और सोचा कि उनके बच्चों के लिए चॉकलेट ले लें।”
इतने में वह पीछे मुड़ा “नलिनी। यहाँ आओ ज़रा।”
मिसेज सैनी भी मुड़ी और हमारे तरफ हो लीं। मैंने उन्हें अपनी ओर आते देखा। उनके चेहरे पर हल्की मुस्कुराहट फैली थी या शायद मुझे लग रही थी। पर आभास ऐसा हो रहा था कि कोई ज़ोर-ज़ोर से खुशी के मारे चीख-चिल्ला रहा हो, उछ्ल रहा हो, कूद रहा हो या खुशी में बाहें फैला के नाच ही रहा हो। उनके चेहरे के सुकून और चमक ने मेरे दिमाग़ में कुछ ऐसी ही तस्वीर खींची, कुछ ऐसा दम था उनकी मुस्कुराहट में।
मि. सैनी हमारा परिचय करवा रहे थे और मुझे अपराधी सा महसूस हो रहा था, जैसे मेरी ही वजह से उनका सलेक्शन नहीं हुआ और अब मैं मिसेज सैनी को क्या मुँह दिखाऊँ।
इतने में मुझे ढूँढती हुई मेरी पत्नी जी भी वहाँ आ पहुँची। मैंने भी आपस में परिचय करवाया। मेरी पत्नी ने बहुत मुस्कुराते हुए सबका परिचय लिया। जाने क्यूँ कई सालों में पहली बार, मैं उनके चेहरे को ध्यान से पढ़ रहा था। हाँलाकि उनके चेहरे पर कई इंच लंबी मुस्कुराहट फैली हुई थी, मगर माथे पर पड़े बल के ढेरों निशान यह गवाही दे रहे थे कि मुस्कुराना तो गहना भर है, दिखावे के लिए पहन लिया। मरी-मरी सी त्वचा से वो सारी रंगत और आब गायब था, जो मैं सालों से नोटिस नहीं कर रहा था।
मुझे कुछ बहुत घबराहट सी महसूस हुई और मैं इस बातचीत के सिलसिले को जल्द से जल्द ख़तम करना चाह रहा था। ऐसा लग रहा था कि मिसेज सैनी की पत्नी में मि. सैनी की तस्वीर दिख रही है, उनका किया-कराया सामने आ रहा है और मेरी पत्नी का चेहरा मेरा आईना हो। मैंने इस आईने से भागने के लिए ज़रूरी काम का बहाना किया और बातचीत के उस सिलसिले को जल्द से जल्द ख़त्म कर, हम घर निकल लिए।
अब मैंने मि. सैनी को अपने दिमाग़ से धीरे-धीरे हटाना शुरू कर दिया था और उनकी जगह मि. सिंह को देनी शुरू कर दी थी। मुझे पूरा विश्वास था कि वह ख़ूबसूरत नौजवान अपने गुणों में मि. सैनी से अधिक ख़ूबसूरत निकलेगा, तभी तो वह सैनी से ज़्यादा सफल है। आख़िर इंसान को सफलता उसके गुणों के कारण ही तो मिलती है।
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सुबह ऑफिस में घुसते ही चहल-पहल, फुसफुसाहट, हा-हा, ठी-ठी औरा झुंड बना-बनाकर लोगों का यहाँ-वहाँ खड़े हो जाना देख रहा था। क्या माजरा है कुछ समझ नहीं आ रहा? किससे पूँछूँ? कोई आकर ख़ुद बता जाए तो अच्छा हो, वरना किसी जूनियर को पूछना ठीक नहीं लगेगा। मैं किसी जूनियर को मुँह लगाना भी नहीं चाहता। इन्हें जितना दूर रखा जाए, उतना ही ठीक है, वरना सिर पर चढ़ बैठेंगे। और जब देखो न, तब अपने किसी न किसी काम के लिए आपके पीछे पड़े रहेंगे। कभी प्रोमोशन के लिए चापलूसी करेंगे तो कभी ट्रांस्फर के लिए जान खा जाएंगे। और कुछ नहीं तो छुट्टियों के लिए ही हाय-तौबा मचाए रहेंगे।
मगर फिर बात कैसे पता चले? आख़िर कौन बताएगा कि ‘हंगामा है क्यूँ बरपा?’
अभी अपनी उधेड़बुन और बात जानने की बेचैनी में मैं अकेला ही डूब-उतरा रहा था कि इस मसले से जुड़े सबसे उपयुक्त आदमी, मि. दास मेरे केबिन में आए।
“अरे यार! देख न अजीब पंगा हो रखा है।”
“क्या हो गया?”
“तुझे नहीं पता?”
“नहीं। क्या हो गया?”
“बाहर इतना हंगामा हो रखा है और तुझे नहीं पता? किस दुनिया में रहते हो यार?”
“तुम बताओगे तब तो पता चलेगा न या आज के अख़बार में आया तो बताओ, अख़बार ही देख लेता हूँ।”
“अरे…वो…अपना…नया बंदा था न।”
मैंने भौहें तीन-चार बार उठाकर, भौहों से ही पूछा कि भला कौन बंदा था, किसकी बात कर रहे हो?
“अरे वही। जिससे मिलवाया था उस दिन।”
“मि. सिंह? तुम्हारे डिपार्टमेंट का नया एक्जीक्यूटिव ऑफिसर?”
“हां हां वही।”
“क्या किया उसने?”
“जेल में है।”
मैं उछल पड़ा।
“क्या? क्या कह रहे हो? वह तो बड़ा स्मार्ट बंदा था। इंटर्व्यू और रिटन में उसने टॉप किया था और उसकी क्वालिफिकेशनस भी तगड़ी थीं। तभी तो इतने लोगों में, अकेले उसका सेलेक्शन हुआ।”
“अब किसी के सर्टिफिकेट पर थोड़े न लिखा होता है कि वह ऑफिस में भीगी बिल्ली बना रहता है मगर घर जाकर बीवी को पीटता है।”
“क्या? मगर तुम्हें कैसे पता कि वो ऐसा करता है?”
“मुझे नहीं पता होगा तो किसे पता होगा? उसके रस्टिकेश्न के लेटर पर मेरे ही तो हस्ताक्षर हुए हैं।”
मैंने हमेशा माना है कि जो जितना ज़्यादा होनहार साबित होता है वो उतना ही अच्छा इंसान भी होता है। वो बहुत सफल था इसलिए मेरे मापदंड के अनुसार वह उतना ही अच्छा इंसान भी होना चाहिए था। मगर मेरे मापादंड की धज्जियां उड़ गईं। मुझे अब भी यक़ीन नहीं हो रहा।
“नौकरी से निकाल दिया?”
“और नहीं तो क्या? तुम्हें तो पता है यह नियम कि जो एक रात भी जेल में बिता देगा तो गया नौकरी से।”
“ऐसे कैसे हो ग्या?”
“उसकी पत्नी ने पुलिस में कम्प्लेन की। वो इस पोस्ट पर आने के बाद से उस पर नौकरी छोड़ने का दबाव बना रहा था। कल उसे मार-पीट कर घर से निकाल ही दिया। वह भी पढ़ी-लिखी थी, बोली जा तो रही है, मगर सबक सिखा के जाएगी। अब तक तो सहती रही कि कुछ बिगड़े नहीं, मगर जब उसका इतना सहना काम न आया तो चली गई पुलिस थाने।”
मेरी आँखों के आगे वह ख़ूबसूरत नौजवान घूम गया। उसके टैलेंट की तारीफ़ सुनकर जितनी बड़ी छवि मैंने मन में बनाई थी, वह उतना ही छोटा हो गया। फिर मैंने अपने दिमाग़ में उसकी बची-खुची छवि को बचाने के इरादे से एक आख़िरी कोशिश की या यों कहें कि अपने ध्वस्त होते मापदंड को बचाने की कोशिश की।
“सच में सह रही थी तो नौकरी छोड़ देती। मामला अपने आप सुलट जाता।”
“ऐसे-कैसे छोड़ देती। जब बिना छोड़े इतना मार-पीट करता था, अपनी चलाता था तो नौकरी छोड़ने के बाद तो कहीं की नहीं रहती। और ऐसे ही मार-पीट के निकाल देता तो कहाँ जाती? आज कम से कम अपने पैरों पर तो है। और सुनों, इस हादसे के बाद तो अपने ऑफिस की लड़कियां भी खुल के सामने आ रही हैं। कह रही हैं उन्हें अब समझ में आ रहा है कि वो खूबसूरत लड़कियों से ज़्यादा चिपक-चिपक के बातें क्यों करता था।”
उसकी बची-खुची छवि भी धुँआ हो गई और मेरी एक दकियानूसी सोच भी ख़त्म हो गई। मगर आज एक नई सीख मिली कि अच्छे इंसान का सफलता से कुछ लेना-देना नहीं होता है।
दास कुर्सी पर झूलता हुआ अपनी चिंता से ग्रस्त था और मैं अपनी सोच में गुम था। लेकिन मैं जब अपनी सोच से बाहर आया तो दास का चिंताग्रस्त चेहरा मुझे कचोटने लगा।
“क्या हुआ यार? तुम किस सोच में डूबे हो? वो सब तो उनके घर की टेंशन है।”
“नहीं यार मैं तो यह सोच रहा था कि फिर से इक्ज़ैम-इंटर्व्यू कराना पड़ा तो कितना ख़र्चा होगा और फजीहत अलग से होगी। और नए आदमी के ज्वाइन करने तक काम सारे ढीले पड़े रहेंगे।”
“इतना क्यों सोचते हो? अभी एक ही हफ़्ता तो हुआ है। क्यों न जिस इंटर्व्यू से इसे सेलेक्ट किया था उसकी एक वेटिंग लिस्ट बनाकर आदमी ले लें। कुछ करना नहीं पड़ेगा और काम फटाफट हो जाएगा।”
दास मेरी सूझ-बूझ पर मंत्रमुग्ध हो गया और मुझे ढेरों बार थैंक्स बोलता हुआ चला गया। मैंने भी मन ही मन अपनी पीठ थपथपाई कि मैंने भी कोई तीर मारा।
मैं अपने केबिन से निकला तो ऑफिस की फुसफुसाहट और चहल-पहल कम हो गई थी और झुंड बिखर गए थे। धीरे-धीरे सब लोग काम में लग रहे थे और (बिना किसी जूनियर के मदद के) मुझे भी सारा मामला समझ में आ गया था और मैं भी शांत था।
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नई सुबह में वही पुराना ऑफिस था। कहीं से की-बोर्ड की किटर-किटर की आवाज़ तो कहीं फाइलों के पन्ने पलटे जाने की धुन। इन मध्यम लयों के बीच कहीं रिकार्ड की अलमारियों की धड़ाम-बड़ाम थी तो कहीं दराज़ों को खींचने की क्रीच-क्रीच। इन्हीं आवाज़ों से गुज़रता हुआ मैं अपने केबिन तक पहुँचने ही वाला था कि दास ने रोक लिया।
“थैंक्स यार।”
“सुबह-सुबह किस बात का थैंक्स?”
“तुम्हारे सुझाव से झटपट नया एक्जीक्यूटिव ऑफिसर मिल गया। अब मुझे हुड्डा वाले प्रोजेक्ट पर काम करने में समय नहीं लगेगा।”
मुझे भी आश्चर्य हुआ। मेरी युक्ति नए बंदे को जल्दी लाने में मदद करेगी, मुझे पता था, मगर इतनी जल्दी, एक ही दिन में।
मैं जाने लगा तो दास ने मुझे फिर टोका।
“अरे ठहरो। नए बंदे से मिलते तो जाओ।”
दास ने वहीं से खड़े-खड़े एक नई जूनियर को आवाज़ दी।
“प्रिया! ज़रा नीरज को इधर भेजना।”
फिर मुझसे मुख़ातिब होकर दास ने मुझे बताया कि इस बंदे का नाम वेटिंग लिस्ट में टॉप पर था इसलिए बिना किसी झंझट परेशानी के सीधे इसे ही पिक कर लिया। मुझे मि. सिंह की याद आई। वह बहुत टैलेंटेड था, मगर देखो कैसा निकला। अभी मैं सोच ही रहा था कि मि. सिंह की जगह लेने वाला यह नया बंदा जाने कैसा हो कि सामने से मि. सैनी आते दिखाई दिए।
मि. दास ने हमारा परिचय कराया और मैंने बहुत मुस्कुराते हुए उससे हाथ मिलाया जबकि दास परेशान थे कि मैं भला किसी जूनियर से इतनी खुशमिज़ाजी से कैसे मिल सकता हूँ।
मगर मि. दास क्या जाने कि मैं अपने इस जूनियर से क्या-क्या सीखने वाला हूँ।
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