धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर के मुख्य गुण, कर्म व स्वभाव

ओ३म्

महर्षि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने अपने सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों में ईश्वर के स्वरूप पर व्यापक रूप से प्रकाश डाला है। इसके आधार पर हम ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को भी जान सकते हैं। यह हम सभी का आवश्यक कर्तव्य भी है, इसलिए कि जिस ईश्वर ने हमारे लिए इस सृष्टि को बनाया और जो हमारा माता, पिता व आचार्यवत् पालन कर रहा है, हम उसका उपकार माने और उसका उचित रीति से धन्यवाद व आभार व्यक्त करें। अतः ईश्वर को जानना हमारे सबके लिए आवश्यक है। ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को जान लेने पर संसार के सम्बन्ध में काफी कुछ जान लिया जाता है। ईश्वर के गुणों की चर्चा करें तो ईश्वर जड़ पदार्थ न होकर वह एक सच्चिदानन्दस्वरूप गुणों वाली सत्ता है। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर की सत्ता है, वह चेतन पदार्थ है तथा वह सदा सर्वदा सब दिन व काल में आनन्द में अवस्थित रहता है। उसे कदापि दुःख व अवसाद आदि नहीं होता जैसा कि जीवात्माओं व मनुष्यों को होता है। चेतन का अर्थ है कि ज्ञानयुक्त वा संवेदनशील सत्ता। प्रकृति व सृष्टि जड़ होने के कारण इसमें ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है। ईश्वर निराकार भी है। निराकार का अर्थ होता है कि जिसका आकार न हो। हमारे शरीर का एक आकार है जिसका कैमरे से चित्र बनाया जा सकता है। आकार को आकृति कह सकते हैं। हमारे शरीर की तो आकृति है परन्तु शरीर में स्थित जो जीवात्मा है उसका आकार स्पष्ट नहीं होता। वह एक बहूत सूक्ष्म बिन्दूवत है जो सत, रज व तम गुणों वाली परमाणु रूप प्रकृति से भी सूक्ष्म है। अतः जीवात्मा का निश्चित आकार वा आकृति नहीं है परन्तु एक देशीय सत्ता होने के कारण हमारे कुछ विद्वान जीवात्मा का आकार मानते हैं तथा कुछ नहीं भी मानते। इसका अर्थ यही है कि जीवात्मा एक एकदेशीय, ससीम व अति सूक्ष्म सत्ता है जिसके आकार का वर्णन नहीं किया जा सकता। अतः जीवात्मा निराकार के समान ही है परन्तु एक देशीय होने के कारण उसका आकार एक सूक्ष्म बिन्दू व ऐसा कुछ हो सकता है व है, इसलिए कुछ विद्वान जीवात्मा को साकार भी मान लेते हैं।

ईश्वर निराकार है, इसका अर्थ है कि उसका कोई आकार व आकृति नहीं है। निराकार का एक कारण उसका सर्वव्यापक व अनन्त होना भी है। ईश्वर इस समस्त चराचर जगत व ब्रह्माण्ड में सर्वान्तर्यामी स्वरूप से व्यापक है। उसकी लम्बाई व चैड़ाई अनन्त होने व उसके मनुष्य के समान आंख, नाक, कान, मुख व शरीर न होने के कारण वह अस्तित्ववान् होकर भी आकर से रहित अर्थात् निराकार है। ईश्वर का एक गुण सर्वज्ञ होना भी है। सर्वज्ञ का अर्थ है कि वह अपने, जीवात्मा और सृष्टि के विषय में भूत व वर्तमान का सब कुछ जानता है और उसे भविष्य में कब क्या करना है वह भी जानता है। वैदिक सिद्धान्त है कि ईश्वर त्रिकालदर्शी है जिसका अर्थ है कि ईश्वर जीवों के कर्म आदि व्यवहारों की अपेक्षा से भूत, भविष्य व वर्तमान आदि को जानता है। ईश्वर में ऐसे असंख्य व अनन्त गुण हैं जिसे वेदाध्ययन व सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर जाना जा सकता है।

ईश्वर के कर्मों की चर्चा करने पर हम पाते हैं कि उसने सत्, रज व तम गुणों वाली अत्यन्त सूक्ष्म त्रिगुणात्मक प्रकृति से इस समस्त दृश्यमान जगत सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, मनुष्यादि प्राणियों की रचना की है और वही इसकी व्यवस्था, संचालन व पालन कर रहा है। यह सभी कार्य ईश्वर के कर्म व कर्तव्यों में आते हैं। ईश्वर का दूसरा मुख्य कर्म व कर्तव्य अनन्त जीवों को उनके पूर्वजन्म व कल्प आदि के शुभ व अशुभ कर्मों का न्यायोचित फल अर्थात् सुख व दुःख देना है। जीवों को उनके कर्मानुसार सुख व दुःख रूपी फल सहित उनके श्रेष्ठ कर्मों के अनुसार मोक्ष प्रदान करने के लिए ही ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है। इससे यह ज्ञात होता है कि मनुष्यों सहित इतर समस्त योनियों में जीवात्माओं के जन्म व मृत्यु आदि की व्यवस्था ईश्वर करता है। ईश्वर सभी जीवों की जीवात्माओं में शुभ कर्म करने की प्रेरणा भी करता है। मनुष्य जब कोई अच्छा काम करता है तो उसे प्रसन्नता होती है और जब बुरा चोरी आदि काम करता है तो भय, शंका व लज्जा आदि अनुभव होती है, यह अनुभूतियां व प्रेरणायें ईश्वर की ओर से ही होती है जिसका उद्देश्य सद्कर्मों को करवाना व अशुभ कर्मों से छुड़ाना है। यह सभी ईश्वर द्वारा किये जाने वाले कर्म हैं। ईश्वर ने इस सृष्टि व ब्रह्माण्ड को धारण किया हुआ है तथा सृष्टि की आयु 4.32 अरब वर्ष होने पर वह इसकी प्रलय करता है। यह सब ईश्वर के मुख्य कर्म कहे जाते हैं। ईश्वर सर्वशक्तिमान है और इस कारण वह अपने किये जाने वाले सभी कार्यों को अकेला ही करता है। उसे अपने कार्यों में किसी अन्य सहायक अर्थात् विशेष पुत्र व सन्देशवाहक की आवश्यकता नहीं होती। ईश्वर के कुछ कर्मों को जानने के बाद अब हम ईश्वर के स्वभाव के विषय में विचार करते हैं।

ईश्वर का स्वभाव न्यायकारी, दयालु व सभी जीवों को सुख प्रदान करना है। अपने इसी स्वभाव के कारण वह जीवों के लिए सृष्टि की रचना कर उन्हें उनके कर्मानुसार नाना योनियों में जन्म देता है। दुष्टों को वह रूलानेवाला है। जो मनुष्य दुष्ट स्वभाव वा प्रकृति के होते हैं, ईश्वर उनको भय, शंका व लज्जा के रूप में व जन्म-जन्मान्तर में उनके कर्मों के अनुसार दुःख रूपी फल देकर रूलाता है। अच्छे व शुभ कर्म करने वालों को सुख देकर भी वह उन्हें आनन्दित करता है। यह उसका स्वभाव है। वह सभी जीवों के साथ न्याय करता है। उसके न्याय से डर की ही लोग पाप के मार्ग को छोड़कर धर्म व पुण्य कर्मों को करते हैं। हमें लगता है कि जो लोग अनावश्यक हिंसा, मांसाहार, मदिरापान, भ्रष्टाचार व कालेधन का संग्रह आदि करते हैं वह घोरतम अविद्या से ग्रस्त हैं। उनकी आत्मायें मलों से आवृत अर्थात् ढकी हुई हैं। जैसे दर्पण पर मल जम जाये तो उसमें आकृति व छति दिखाई नहीं देती, इसी प्रकार दुष्ट आत्मायें होती हैं जिन पर काम, क्रोध, लोभ, मोह, अशुभ इच्छा, द्वेष रूपी अविद्या का गहरा आवरण उनकी आत्माओं को ढक लेता है और आत्मा ईश्वर से मिलने वाली प्रेरणाओं को या तो सुनता ही नहीं या उन्हें अनसुना कर देता है। इससे आत्मा का घोर पतन होने के साथ उसका भविष्य व परजन्म दुःखों के भोगने का आधार बनता है। विवेकी व विद्वान इन सब बातों को जानकर ही असत्य को छोड़ सत्य मार्ग पर चलते हुए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना का मार्ग वरण करते हैं और योगाभ्यास आदि करके समाधि को सिद्ध कर ईश्वर साक्षात्कार कर विवेक को प्राप्त होकर जन्म व मरण के चक्र व बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। जीवों को आनन्दमय मोक्ष की प्राप्ति के लिए ही ईश्वर ने इस सृष्टि को रचा है जिसमें ऋषि दयानन्द, लेखराम, गुरुदत्त, श्रद्धानन्द व दर्शनानन्द जी जैसी आत्मायें मुमुक्षु बन कर कल्याण को प्राप्त होती है।

हम आशा करते हैं कि पाठक इस लेख द्वारा ईश्वर के गुण, कर्म व स्वभाव को कुछ जान सकेंगे। इसी के साथ लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

मनमोहन कुमार आर्य