ग़ज़ल : लगा दिये
यादों की दीवार पर कुछ चित्र पुराने लगा दिये
पलकों के झरोखों पर फिर ख्वाब सुहाने लगा दिये
क्या पता था वे सब, यहीं अगल-बगल होंगे
जिन्हे ढूंढने में मैंने ज़माने लगा दिये
सच बोला जब तलक, तकलीफ नहीं थी जीने में
एक झूठ को छिपाने में कितने बहाने लगा दिये
रंजिश है उसको मुझसे, मगर क्या कमाल है
दुश्मन भी मेरे उसने ठिकाने लगा दिये !
अपने हुस्न को लेकर अकेला ही निकला था “जय”
दीदार को कतार में, हजारों दीवाने लगा दिये !
— जयकृष्ण चांडक “जय”