कविता : चूल्हे की रोटियाँ
सुदूर गाँव से
जब आता है फ़ोन
किसी आत्मीय का
बातों ही बातों में
जिक्र होता है
ठण्ड के मौसम में तपते हुए
चूल्हे के ताप का l
और साथ ही
तवे से उतरती
उन अधपक्की रोटियों का भी
जो रख दी जाती हैं
सुलगते अंगारों पर
पकने के लिए
ताकि उनमें भर सके
स्वाद
अमृत सा l
याद आती है माँ
रोटियाँ सेंकती
संयुक्त परिवार के चूल्हे में
खाना खाते समय
पिता की दी गई नसीहतें
दादी की चिंताएं
लुप्त होते
नैतिक मूल्यों एवं
संस्कारों को लेकर l
दादा का
हुक्का गुड़गुडाते हुए
लेना रिपोर्ट सभी से
दिन भर के क्रियाकलापों की
धमाचौकड़ी मचाते
बच्चों की टोली का
घेर लेना चाचू को
घर आते ही
चटपटी गोलियों और
टॉफियों की चाह में l
जरूरतें
अब ले आई हैं
गाँव से दूर
अब तवे से उतरती रोटी
सेंकी जाती है
गैस के स्टोव पर
और पुनः गर्म होती हैं
हीटर पर
सर्दी के मौसम में
खाने से ठीक पहले l
माला के मनकों की तरह
अब बिखर गए हैं
संयुक्त परिवार
टूट रहें है तिलिस्म
संवेदनाओं के
गाँव के थोड़े से घरों से
पैदा हो गए हैं अब
अनेक घर !
-मनोज चौहान