“फागुन गुनगुना रहा है”
कुहरे से ढ़का हुआ आसमान
दिखता निश्तेज है ठंड शेष है
मथनी मथ रही है आँधियाँ जोर से
कब उभरेगा मक्खन, उबलते दूध से
पानी खुद ही पानी पिए जा रहा है॥
कल-कल, छल-छल की पहचान
खूब शोर है हवा का जोर है
उमड़ते घुमड़ते बादल इधर उधर
कहीं जा रहे हैं कहीं से पाएँ रगर
अपने आप तड़के गर्जना सुना रहा है॥
अपनी डाली पर बैठा है बसंत
बदलते मौसम में कुलबुला रहा है
शायद ऋतु बदलने की भनक लगी
पत्ते पत्ते टहनी टहनी को तकने लगी
नवांकुरित पल कोमलता को सहला रहा है॥
बदलते मौसम का अहसास आगमन
अब बदलती दिशाएँ गरमा रही है
खेत खलिहान हरियाली मानों लहराएगी
पतझड़ के बाद ही सही बसंतऋतु आएगी
दहन होलिका का फागुन गुनगुना रहा है॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी