गज़ल
मुहब्बत के लिए इंसान कुछ भी कर गुज़रता है
जुनून-ए-इश्क हो तो फिर किसी से कौन डरता है
दिल-ए-नादान का है एक ही कातिल-ओ-चारागर
उम्मीदों पर ही जिंदा है, उम्मीदों से ही मरता है
गया इस राह पर जो भी कभी वापिस नहीं आया
जो डूबा आग के दरिया में वो फिर कब उबरता है
सिवाय राख के इक ढेर के कुछ भी नहीं हूँ पर
ना जाने क्या है सीने में जो बरसों से सुलगता है
सुबह फूल पर शबनम को देखा तो ख्याल आया
चमन में कोई तो रातों की तनहाई में रोता है
मुझे कोई उम्रभर क्यों याद रखे कि यहां पर लोग
चिरागों को बुझा देते हैं जब सूरज निकलता है
— भरत मल्होत्रा