गीत “ऐसे घर-आँगन देखे हैं”
आपाधापी की दुनिया में,
ऐसे मीत-स्वजन देखे हैं।
बुरे वक्त में करें किनारा,
ऐसे कई सुमन देखे हैं।।
धीर-वीर-गम्भीर मौन है,
कायर केवल शोर मचाता।
ओछी गगरी ही बतियाती,
भरा घड़ा कुछ बोल न पाता।
बरस न पाते गर्जन वाले,
हमने वो सावन देखे हैं।
बुरे वक्त में करें किनारा,
ऐसे कई सुमन देखे हैं।।
जब तक है लावण्य देह में,
दुनिया तब तक प्रीत निभाती।
माया-मोह धरे रह जाते,
जब दिल की धड़कन थम जाती।
सम्बन्धों को धता बताते,
ऐसे घर-आँगन देखे हैं।
बुरे वक्त में करें किनारा,
ऐसे कई सुमन देखे हैं।।
ऐसे भी साहित्यकार हैं,
जो खुदगर्ज़ी को अपनाते।
बने मील के पत्थर जैसे,
लोगों को ही पथ दिखलाते।
जिनका अन्तस्थल पाहन सा,
वो माणिक-कंचन देखे हैं।
बने मील के पत्थर जैसे,
औरों को ही राह बताते।
जो संवेदनशील नहीं है,
वो मानव दानव कहलाता।
रंग बदलता गिरगिट जैसा,
अपना असली “रूप” छिपाता।
अपने बिरुए निगल रहे जो,
वो निष्ठुर उपवन देखे हैं।
— डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’