ग़ज़ल
काले बादल से हवा में भी नमी लगती है |
दिल के रोने से आँखे भी गिली लगती है ||
रजनी के आँसू से धरती ने बुझाया है प्यास|
पाँव रखता हूँ तो हलकी सी नमी लगती है||
यह सियासत भी बड़ी बेवफा है, हरदम धूर्त |
ना पिता की हुयी ना पति की,कटी लगती है ||
इस तन्हाई में तेरी याद हमेशा आई |
करूँ मैं क्या ये फिजायें लुटी लगती है ||
दीप की रोशनी से धरती चमकती है जब |
धरती की साडी तो हीरे जड़ी लगती है ||
ढक गई है धरा पत्तों की हरी चादर से |
रूप में वह नई दुल्हन से भली लगती है ||
© कालीपद ‘प्रसाद’