चिंता ( लघुकथा )
बस गंतव्य की ओर बढ़ रही थी ।रात गहरा चुकी थी । बाहर का दृश्य स्पष्ट दिखे, इसलिए बस के भीतर की सारी बत्तियाँ बंद कर दी गई थीं । खर्राटें भरती सवारियों की संख्या अधिक न थी । वह भी घुटनों को पेट से चिपकाये नींद में डूबी हुई थी ।नींद में ही उसे अपने शरीर पर कुछ रेंगता सा महसूस हुआ । अनजाने भय से उसकी आँखे तेज़ी से खुल गईं ।कुछ ना पाकर उसने पलटकर पीछे की सीट की ओर देखा । सड़क पर चल रही दूसरी गाड़ियों के प्रकाश में उसे एक पुरुष आकृति गहरी नींद में सोते हुए दिखी ।” शायद मुझे नींद में भ्रम हो गया है।क्या जिंदगी है हमारी भी , न घर में बेफिक्र हो सो पातीं हैं , और ना बाहर ही …” खुद से ही बतियाती हुई वह पुनः लेट गई , लेकिन सतर्कता और मन के डर ने उसे सोने नहीं दिया ।कुछ क्षण और बीते होंगे , सीट की जोड़ वाली खाली जगह से उसे दोबारा अपने शरीर पर कठोर हाथ का दबाव महसूस हुआ ।वह झटके से उठकर बैठ गई ।पुरुष को खुद को संभालने के लिए उतना वक़्त पर्याप्त था । वह अभी भी सोने का उपक्रम किये हुए था ।डर से उसका शरीर काँपने लगा । संस्कार और शर्म के कारण जुबान तालू से चिपक गई ।वह सामने की सीध की सीट पर सोये पिता को जगाकर उसके साथ क्या घट रहा है, ये बताने की भी हिम्मत न जुटा पाई ।अब सोना मूर्खता थी ।उसने दोनों पैर सीट पर मोड़े ,चादर से खुद को कसकर लपेटा और पानी की बोतल मुँह से लगा ली ।
” क्या हुआ लच्छो , सोई नहीं अभी तक ?” पिता कब पास आकर बैठ गए , उसे पता ही नहीं चला ।
” वो … झटके बहुत लग रहे हैं न बस में , इसीलये नींद नहीं आ रही ” पिता की आवाज़ सुन उसे बहुत राहत मिली । परंतु शब्दों में अभी भी कंपन था ।” पर आप क्यों उठ गए पिताजी ?”
पिता ने एक तीक्ष्ण दृष्टि पीछे की सीट पर डाली ,” लड़की आधी रात को भी जाग रही हो तो किस पिता को नींद आएगी बेटी ?” पानी की बोतल उसके हाथ से लेते हुए पिता ने कहा ।
शशि बंसल
भोपाल …