लघुकथा : स्वाद
गर्मी की एक शाम को मैं चौपाटी पर अपने पति व बच्चों के साथ चाट का आनंद ले रही थी, तभी वहाँ एक ७-८ वर्षीय फटेहाल बालक आया और जूठी प्लेटों की ओर इशारा करके चाट वाले से बोला- “बाबूजी, ये प्लेटें धो दूँ? सुबह से भूखा हूँ लेकिन काम नहीं मिला”।
“नहीं मुझे आवश्यकता नहीं है बच्चे, आगे देखो…”
मैंने बालक को चाट दिलानी चाही लेकिन उसने इंकार करते हुए कहा- “मैं भिखारी नहीं हूँ माँ जी, काम मिलेगा तभी कुछ खाऊँगा”।
मैं कुछ कहती उससे पहले ही वो तेज़ी से अगले ठेले पर पहुँच चुका था। मैं किंकर्त्तव्य विमूढ़ सी गरीबी और खुद्दारी का अनोखा गठबंधन देखती रह गई।
हम चाट वाले को पैसे देकर सामने ही आइसक्रीम-पार्लर पर पहुँचकर अपनी-अपनी मनपसंद आइसक्रीम लेकर बाहर कुर्सियों पर बैठ गए लेकिन मुझे आइसक्रीम में अपनी पसंद का फ्लेवर होने के बावजूद स्वाद नहीं आ रहा था। मेरी नज़रें अब भी सामने उस बालक का पीछा कर रही थीं जो अब तक वैसे ही चाट वालों की उस लंबी कतार में एक के बाद एक ठेले से ठेला जा रहा था।
“आइसक्रीम पिघलती जा रही है सरिता! कहाँ ध्यान है तुम्हारा”? अचानक पतिदेव की आवाज़ से मैं चौंक गई और उस बालक की ओर इशारा कर दिया।
तभी देखा कि एक बड़ी सी ठेलागाड़ी पर वो बालक जल्दी-जल्दी प्लेटें धो रहा था और कुछ ही देर में उसके हाथ में चाट से भरी प्लेट थी। मैंने संतुष्टि की साँस ली, अब आइसक्रीम का स्वाद बढ़ गया था।
— कल्पना रामानी