लघुकथा : कसक
दफ़्तर से लौटी अदिति के सिर में तेज दर्द था । उसका आठ वर्षीय मुन्नी को ‘पार्क’ घुमाने ले जाने का बिलकुल मन नहीं था , परंतु मुन्नी की ज़िद के आगे उसकी एक न चली । उसने मुन्नी को बच्चों के बीच खेलने के लिए छोड़ा और खुद एक बेंच पर जाकर बैठ गयी ।
पति रजत से अलगाव के बाद पिछले छः वर्षों से ये उसका रोज का नियम था। दर्द और चिड़चिड़ाहट से भरी वह नज़रें इधर-उधर दौड़ा रही थी कि सहसा उसकी नज़र थोड़ी दूर एक कोने में खड़े वृद्ध दंपति पर जाकर ठहर गई । वृद्धा किसी बात पर रूठी हुई थी और वृद्ध उसके हाथ पकड़कर उससे क्षमा माँग रहा था । फिर वृद्ध ने पता नहीं क्या कहा कि वृद्धा का चेहरा षोडशी की भाँति शर्म से लाल हो गया, जिसे उसने हाथों से छिपाने का प्रयास किया । वृद्ध होले से झुकते हुए अपने चेहरे को वृद्धा के चेहरे के समीप ले गया और उसके हाथों को पकड़ चेहरे से हटा उसकी आँखों में झाँकने लगा । फिर दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े ।
रजत ने भी तो उससे इसी तरह हाथ पकड़कर कितनी दफ़ा माफ़ी माँगी थी । वह उसे लेने भी आया था, परंतु उसके अहम् ने उसके साथ जाने से हर बार इनकार कर दिया था ।
वह था तो पति-पत्नी के बीच का एक सामान्य दृश्य, परंतु उनकी उम्र देखकर अदिति के भीतर गहरे तक बहुत कुछ दरक गया । अश्रुओं की दो बूँदों के साथ दर्द और चिड़चिड़ाहट भी गोदी में गिर गए । उसकी नम दृष्टि वृद्धा की खिलखिलाती झुर्रियों वाले हाथों से होती हुई अपनी उदास सुकोमल कलाइयों पर आकर ठहर गईं, जिन्हें बरसों से किसी ने नहीं छुआ था ।
— शशि बंसल, भोपाल