ग़ज़ल
बखेडा वतन को मिटाता रहा है
जमाना यहाँ घर बसाता रहा है |
यही है फ़साना यही है वो’ झगडा
सदा दुश्मनी क्यों निभाता रहा है |
पुराना चलन है जहां बेरहम में
धनी मुफलिसों को सताता रहा है |
गरीबी में’ सपना अधूरा ही’ रहता
वही ख़्वाब क्यों फिर सजाता रहा है |
जलाकर कुटी को हवेली बनाना
अमीरों की फ़ितरत बताता रहा है |
गगन भेदी’ निर्माण सब है तो’ सुन्दर
कुटी की खिल्ली उडाता रहा है |
© कालीपद ‘प्रसाद’