वैदिक वर्ण-व्यवस्था वर्तमान में खण्डित होते हुए भी अंशतः जीवित है
ओ३म्
लेख की भूमिका
डा. जयदत्त उप्रेती जी आर्यसमाजा के वरिष्ठ विद्वान, विचारक वा चिन्तक हैं। आपने फोन पर हमसे चर्चा की और यह लेख भेजा है। हम इसके प्रचार की दृष्टि से फेसबुक पर प्रस्तुत कर रहे हैं। हम आशा करते हैं कि पाठक इस विषय से परिचित होंगे ओर अपनी टिप्पणी दे सकते हैं जिनका उपयोग कर इस विषय को आगे विस्तृत किया जा सकता है।
–मनमोहन कुमार आर्य
पाक्षिक पत्र ‘‘आर्य जीवन” के 18-11-2016 के अंक में प्रकाशित श्री मनमोहन कुमार आर्य जी का लेख वैदिक वर्ण-व्यवस्था की वर्तमान में व्यावहारिकता के प्रश्न पर छपा है, जिसमें उन्होंने आर्यसमाज के विद्वानों से इस विषय पर अपने विचार देने का अनुरोध किया है। इस सम्बन्ध में मुझे यह निवेदन करना है-
वर्ण-व्यवस्था, क्योंकि वेदानुसार एक सभ्य सुसंगठित समाज के लिए एक आवश्यक और अपरिहार्य विधान है, जिसका अन्य सामाजिक कर्तव्यों की भांति पालन करना लोकहित में है। क्योंकि मनुष्यों की सारी आवश्यकतायें आपस में एक-दूसरे के साथ जुड़ी हुई हैं, अकेले कोई भी सब कुछ कार्य नहीं कर सकता, अल्पज्ञ, अल्पशक्तिक और अल्पसाधन होने से, विशेषतः रुग्णातादि की स्थिति में। इसलिए सबको मानना पड़ता है कि मनुष्य सदैव एक दूसरे पर निर्भर रहा करता है। उसके बिना उसका योगक्षेम अथवा गुजारा होना भी कठिन होता है।
जब हम आज के इस वैज्ञानिक चकाचौंध वाले समय में भी देखते हैं कि ब्राह्मणत्व का कार्य वे सब लोग कर रहे हैं जो निरन्तर अध्ययन-अध्यापन, शोध, अनुसंधान और नित नयी नयी वस्तुओं की खोजबीन अथवा जानकारी में लगे हुए हैं। वे लोग भी जो यज्ञ = अच्छे अच्छे लोकहित के पुण्य कार्य मनसा, वाचा, कर्मणा कर रहे हैं, और करवा रहे हैं, तथा वे लोग भी जो यथाशक्ति अपने पुरुषार्थ और परिश्रम से अर्जित धन-सम्पत्ति (जिसके अनेक रूप हैं) का सुपात्रों में नित दान किया करते हैं, ब्राह्मणत्व के कर्तव्य कर्मों को ही कर रहे हैं क्योंकि मनुस्मृति में ब्राह्मण के ये छः ही मुख्य कर्म बतलाये गये हैं। यथा,
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्।। (मनु0, 1-86)
भगवद् गीता में भी कुछ आचरण की शुद्धतादि विशेषतायें और जोड़ते हुए यही कहा गया है-
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वाभावजम्।। (गीता 8-42)
इसी प्रकार जो लोग मुख्यतः प्रशासन में, राजधर्म या राजकर्म में, सेना में, पुलिस विभाग में, न्यायाधीशत्वादि कर्म में और किसी भी प्रकार की देश, धर्म, जाति की सुरक्षा-संरक्षा के कार्य में लगे हुए हैं, वे सब क्षात्रधर्म में लगे होने के कारण क्षत्रिय वर्ण में ही गिने जा सकते हैं। जैसा कि कहा गया है-
प्रजाना रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।। (मनु. 1-89)
शौर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।। (गीता 18-43)
तदनुसार वर्तमान में हमारे आदरणीय प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी, चाहे जिस कुल में जन्म लिए हों, राजधर्म का पालन करने के कारण क्षत्रिय वर्ण को ही सार्थक को कर रहे हैं।
एवमेव कृषि, वाणिज्यादि कर्म को मुख्यतः करने वाले जो कोई भी जन हों, चाहे वे जिस किसी कुल में पैदा हुए हों, वैश्यवर्ण के कर्म कर रहे हैं। इन तीनों प्रकार के वर्णों वाले लोगों की सेवा-सहायता के कर्म में मुख्यतः जो लगे रहते हैं, वे शूद्र वर्ण का कार्य सम्पन्न कर रहे हैं। इस प्रसंग में, एक छोटी सी किन्तु सटीक बात की एक घटना मुझे सन् 1964 की स्मरण आ रही है, जिसका उल्लेख करना मैं यहां उचित समझ रहा हूं, जो इस प्रकार है। मैं तब सचिवालय, उत्तर प्रदेश में अवरवर्ग सहायक पद पर कार्यरत था, किन्तु पठन-पाठन के कार्य में मेरी अधिक रुचि थी। अकस्मात् मुझे लखनऊ में काशी पण्डित सभा के अध्यक्ष पं. गोपाल शास्त्री, दर्शन केसरी जी मिल गये। मैंने उनसे बातों बात में अपना परिचय दिया तो कहने लगे आप जोशीमठ चलिए, मैं वहां पर बदरीनाथ वेद-वेदांग महाविद्यालय में प्रधानाचार्य हूं, वहां व्याकरणाचार्य का पद रिक्त है, आप छात्रों को व्याकरणादि विषयों को पढ़ायेंगे। यह सुन मैं प्रसन्न भी हुआ किन्तु चिन्ता इस बात की होने लगी कि स्थायी सरकारी नौकरी छोड़कर अस्थायी और न्यून वेतन वाले कार्य को क्या ग्रहण करना उचित होगा? उसके बाद तो गोपाल शास्त्री जी के मेरे पास पत्र आने लगे, जिनमें लिखा रहता था ‘‘त्यजेमां शूद्रवृत्तिं, कुरु ब्राह्मणकर्म, अध्यापनं ब्राह्मण कर्म” अर्थात् इस शूद्र कार्य को छोड़कर ब्राह्मण का कर्म अध्यापन कीजिए। प्रसंगोपात्त इस कथन से व्यंग्यार्थ निकला कि अध्यापन और क्लेरिकल कार्य में तुलनात्मक दृष्टि से अध्यापन कार्य अर्थात् विद्यादान का कार्य श्रेयस्कर है। शूद्र शब्द को आज कुछ लोग तुच्छ और निन्दित अर्थ वाला समझते हैं किन्तु यह उनकी भूल है। सेवा और सहायता का कार्य कोई भी हो तुच्छ नहीं हो सकता। उसे तुच्छ तभी कहना चाहिए जब कि वह किसी की हानि करने वाला हो, अन्यथा नहीं। अस्तु, इन अन्तिम दो वर्णों के सम्बन्ध में मनुक्त और गीतोक्त विधानों में समानता है, जो इस प्रकार है–
पशूनां रक्षणं दानभिज्याध्ययनमेव च। वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च।।
एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्। एतेषामेव वर्णानां शुश्रषामनसूयया।। (मनु. 1-90, 91)
कृषिगौरक्षवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्। परिचयात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।। (गीता. 18-44)
वर्तमान काल में भी संसार भर के किसी भी धर्म को मानने वाले या न मानने वाले लोग भी जो कि पूर्वोक्त कर्मों में विशेष रूप से लगे हैं, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नामक वर्णों के कार्य सर्वांश में न सही, आंशिक रूप से तो कर ही रहे हैं, भले ही उन्होंने अपने नाम अपने देश की भाषा में कुछ भी रक्खा हुआ हो। अंग्रेजी की शब्दावली में टीचर, प्रीचर, रिसर्चर, इन्टलैक्चुअल क्लास ही ब्राह्मण वर्ण है, रुलर, फाइटर, सिक्यूरिटी फोर्सेज, पोलिटीशियंस, जजेज्, ये सब क्षत्रिय वर्ण का प्रकारान्तर से कार्य कर रहे हैं। एग्रीकल्चरिष्ट, कल्टीवेटर्स, ट्रेडर्स आदि कहे जाने वाले वैश्य वर्ण का ही कार्य कर रहे हैं और सर्वेन्ट्स क्लास, लेबरर्स आदि नाम से कहे जाने वाले लोग शूद्र वर्ण के कार्य को सम्पन्न कर रहे हैं। इसी दृष्टि से हमारा मत है कि वैदिक वर्ण-व्यवस्था संसार में आंशिक रूप से चल रही है।
जहां तक हिन्दू समाज का प्रश्न है, वहां यद्यपि चारों वर्णों का वैदिक नाम यथावत् प्रचलित है अन्तिम वर्ण के लिए आज भले ही राजनीतिक दृष्टि से नाम परिवर्तन कर दिया गया है। बस, जो दोष या गड़बड़ है, वह जन्मना वर्ण मानने और गुण-कर्म के अनुसार वर्ण के न मानने के कारण है। केवल तथाकथित ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाले कुछ गिने-चुने लोगों में पूर्वोक्त रूप में अध्यापनादि, पौरोहित्यादि कर्म के साथ-साथ आचरण की शुद्धता देखने को मिलेगी, जो कदाचित् दस-पांच प्रतिशत भी हो या न हो। शेष तो सब लोग जन्मना वर्ण या जाति के अभिमानी होते हुए भी भिन्न भिन्न वर्ण के कार्यों में ही मुख्यतः लगे रहते हैं, स्वेच्छा से अथवा परिस्थितिवशात्। समुचित रूप से तो चारों वर्णों के प्रधान-प्रधान कार्य अपने देश भारत में भी यथाकथंचित् हो ही रहे हैं, क्योंकि स्वस्थ समाज के लिए उन सबकी सदा सर्वत्र आवश्यकता बनी रहती है।
अब रहा प्रश्न आर्यसमाज में वर्ण-व्यवस्था का। आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द ने वेदों के पुरुषसूक्त और मन्वादि स्मृतियों के आधार पर ब्राह्मणादि चारों वर्णों को गुण-कर्म-स्वभाव के अनुसार होने का सिद्धान्त स्वीकार किया है। परन्तु आर्यसमाज में भी यह सिद्धान्त शब्द रूप में ही मान्य रहा, व्यवहार में स्पष्ट नहीं हुआ। यदि कहा जाय कि इस विषय में बृहत् हिन्दू समाज की जो स्थिति है, वही थोड़े से परिवर्तन के साथ लगभग आर्यसमाज की भी स्थिति है, तो इसमें कोई अत्युक्ति न होगी। जैसा कि श्री मनमोहन जी ने सन्दर्भित लेख में कहा है, गुरुकुलों के द्वारा वर्णों का निर्धारण किया जाना चाहिए था, यही मैं भी सोचता रहा हूं। इसका प्रमाण परोपकारिणी सभा के द्वारा प्रतिवर्ष अजमेर में आयोजित की जाने वाली गोष्ठियों में लगभग 5-6 वर्ष पूर्व एक गोष्ठी में अपने द्वारा पढ़े गये शोधपत्र में और बाद में मौखिक संवाद में भी गोष्ठी के अध्यक्ष डा. सुरेन्द्र कुमार जी के समक्ष यही बात कही। परन्तु न वह शोध गोष्ठी के लेख कभी छपे और न उसका कोई उत्तर ही मुझे मिला। आज भी इस विषय पर कहीं कोई चर्चा नहीं सुनाई देती जिससे लगता है कि आर्यसमाज के सामान्य और प्रबुद्ध लोगों में इस विषय पर विचार करने में कोई रुचि नहीं है। प्रत्युत जैसा चल रहा है, उसी को चलने दिया जाय। अथवा, वैदिक कालिक वर्ण-व्यवस्था वर्तमान समय में वेदोक्त या सत्यार्थप्रकाशोक्त राजशासन न होने से लागू करना सम्भव नहीं है, इसलिए अपने लिए स्वतन्त्र रुप से यथेच्छ अच्छा कार्य चुनें, यही ठीक है। इति।
-डॉ. जयदत्त उप्रेती