सन्ध्या में अघमर्षण मन्त्रों के पाठ से पाप छूट कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति होना संभव है
ओ३म्
महर्षि दयानन्द जी ने ईश्वर का सम्यक् रीति से ध्यान करने के लिए इसकी सर्वोत्तम विधि पुस्तक रूप में लिखी है। ईश्वर के ध्यान की यह विधि ‘सन्ध्या’ कही जाती है जिसका विधान उन्होंने अपनी पुस्तकों पंचमहायज्ञविधि और संस्कारविधि में भी किया है। महर्षि दयानन्द जी का निर्देश है कि सभी मनुष्यों को प्रातः व सायं दो सन्धि-वेलाओं में न्यून से न्यून 1 घंटा सन्ध्या करनी चाहिये। इस विषयक अन्य निर्देशों के लिए सन्ध्या वा पंचमहायज्ञविधि की पुस्तक को देखना उचित है। यह भी बता दें कि ऋषि दयानन्द लिखित सन्ध्या की अनेक शीर्ष विद्वानों ने विस्तृत व्याख्यायें लिखी हैं जिनमें पं. विश्वनाथ वेदोपाध्याय विद्यामार्तण्ड, पं. गंगा प्रसाद उपाध्याय, पं. चमूपति एवं स्वामी आत्मानन्द सरस्वती आदि के द्वारा लिखित पुस्तकें सन्ध्यारहस्य, सन्ध्या क्या, क्यों व कैसे तथा सन्ध्या अष्टांग योग मुख्य हैं।
कल एक लेख में हमने सन्ध्या के प्रथम आचमन मन्त्र पर लिखा था। आचमन के बाद इन्द्रिय स्पर्श, मार्जन तथा प्राणायाम मन्त्रों व उनके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं का विधान व उल्लेख किया गया है। प्राणायाम के बाद अघमर्षण मन्त्रों का विधान है। अघ पाप को कहते हैं और हमारे जीवन में कोई पाप न हों, हम उससे बच सकें, इसके लिए अघमर्षणों का विधान किया गया है। यहां यह बता दें कि हम जो कुछ भी करते हैं वह मन व बुद्धि के समन्वय से निर्धारित करके ही करते हैं। यदि हमारा मन यह जान जाये कि हमारे सभी अच्छे व बुरे कर्मों को सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, न्यायकारी व सर्वशक्तिमान परमात्मा हर क्षण व हर पल, अन्धकार में भी व प्रकाश में भी, देख रहा होता है और उन सभी कर्मों का यथा समय फल व दण्ड आदि देता है तो हम पाप करने से अवश्य ही बचेंगे। हर व्यक्ति जानता है कि चोरी व हत्या करने से पुलिस पकड़ती है, मुकदमा चलता है, सजा होती है और वर्षों जेल में रहकर श्रम करना पड़ता है। हत्या के मामलों में मृत्यु दण्ड भी हो सकता है। अतः सभी इन पापों व अपराधों को करने से अपने आप को रोकते हैं। परमात्मा ही सच्चा व सर्वशक्तिमान न्यायाधीश व पुलिस है और यह संसार ही जेल भी है और सुखों का धाम भी है। इस संसार में सरकारी व्यवस्था से भिन्न ईश्वर भी एक सर्वोपरि न्यायाधीश है जो हर पल व हर क्षण अर्थात 24×7 घंटे हमारी आत्मा के भीतर उपस्थित रहकर हमारे हर काम एवं विचारों को जान रहा है। परमात्मा की सर्वशक्तिमत्ता का परिचय ही अघमर्षण मन्त्रों में कराया गया है जिस पर प्रतिदिन प्रातः व सायं हमें चिन्तन करना है और संकल्प लेना है कि हम कोई पाप नहीं करेंगे। इसके साथ ही हमने प्रातः की सन्ध्या में सायं के पश्चात कोई पाप तो नहीं किया और सायं की सन्ध्या में प्रातः की सन्ध्या के समय के बाद से कोई अपराध किया या नहीं, इस पर भी दृष्टिपात करना होता है और कृत पापों के लिए प्रायश्चित करने के साथ भविष्य में उनसे बचने का संकल्प लेना होता है। प्रायश्चित ही हमें भावी पापों व अपराधों से बचाता है। आइये, अब अघमर्षण मन्त्रों पर दृष्टि डालते हैं।
ओ३म् ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत। ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोऽअर्णवः।।1।।
समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोऽअजायत। अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी।।2।।
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्। दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः।।3।।
ऋग्वेद 10.190.1-3
इन मन्त्रों के संक्षिप्त अर्थ व इनका व्याख्यान निम्नानुसार है। सन्ध्या करते हुए मन्त्रों के अर्थों पर विस्तार से चिन्तन किया जाता है।
सब जगत का धारण और पोषण करनेवाला और सबको वश में करनेवाला परमेश्वर, जैसा कि उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत् के रचने का ज्ञान था और जिस प्रकार उसने पूर्वकल्प की सृष्टि में जगत की रचना थी और जैसे जीवों के पुण्य-पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये हैं। जैसे पूर्व कल्प में सूर्य-चन्द्रलोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं, जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था, वैसा ही इस कल्प में रचा है तथा जैसी हमारी यह भूमि वा पृथिवी प्रत्यक्ष दीखती है, जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, जितने आकाश के बीच में लोक हैं, उन सबको ईश्वर ने रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक-लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, वैसे ही अब भी बनाये हैं ओर आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस ही रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता। इसी कारण से मन्त्रों में ‘यथापूर्वम–कल्पयत्’ इस पद का ग्रहण किया है।
ईश्वर ने ही अपने सहज स्वभाव से जगत् के रात्रि, घटिका, पल और क्षण (आजकल की भाषा में सेकेण्ड्स, मिनट एवं घंटे) आदि को जैसे पूर्व कल्प वा सृष्टि में थे वैसे ही रचे हैं। इसमें कोई ऐसी शंका करे कि ईश्वर ने किस वस्तु से जगत् को रचा है? उसका उत्तर यह है कि (अभिद्धात् तपसः) ईश्वर ने अपने अनन्त सामथ्र्य से सब जगत् को रचा है। ईश्वर के प्रकाश से जगत् का कारण ‘प्रकृति’ प्रकाशित होता है और सब जगत् के बनाने की सामग्री ‘प्रकृति’ ईश्वर के अधीन है। उसी अनन्त ज्ञानमय सामथ्र्य से सब विद्या के खजाने वेदशास्त्र को ईश्वर ने ही प्रकाशित किया जैसा कि उसने पूर्व सृष्टि में प्रकाशित था और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा। जो त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्य, रज और तमो गुण से युक्त प्रकृति है, जिसके नाम अव्यक्त, अव्याकृत, सत्, प्रधान और प्रकृति है, जो स्थूल और सूक्ष्म जगत् का कारण है, सो सृष्टिरूप में कार्यरूप होके पूर्व कल्प के समान उत्पन्न हुई है। उसी ईश्वर के सामथ्र्य से जो प्रलय के पीछे हजार चतुर्युगी के प्रमाण से रात्रि कहाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही होती है। इसमें ऋग्वेद का प्रमाण है कि-‘‘जब जब विद्यमान सृष्टि होती है, उसके पूर्व सब आकाश अन्धकाररूप रहता है और उसी अन्धकार में सब जगत् के पदार्थ ‘प्रकृति’ और सब जीव ढके हुए रहते हैं, उसी का नाम महारात्रि है।” तदन्तर (ईश्वर की) उसी सामथ्र्य से पृथिवी और मेघ मण्डल अर्थात् अन्तरिक्ष में जो महासमुद्र है, सो पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है।
उसी सृष्टि रूप समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर, अर्थात् क्षण, मुहर्त प्रहर आदि काल भी पूर्व सृष्टि के समान उत्पन्न हुए हैं। वेद से लेके पृथिवीपर्यन्त जो यह जगत् है, सो सब ईश्वर के नित्य सामथ्र्य से ही प्रकाशित हुआ है और ईश्वर सबको उत्पन्न करके सबमें व्यापक होके अन्तर्यामिरूप से सबके पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़ के सत्य न्याय से सबको यथावत् फल दे रहा है। यह उपर्युक्त तीन वेद मन्त्रों का तात्पर्य व भावार्थ है।
इन मन्त्रों का पाठ करके और उपर्युक्त अर्थों व भाव को विचार करके ईश्वर से भय करके ऐसा निश्चय जानना चाहिये कि सब मनुष्य मन, वचन और कर्म से पापकर्मों को कभी न करें। इसी का नाम अघमर्षण है अर्थात् ईश्वर सबके अन्तःकरण के कर्मों को देख रहा है, इससे पापकर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवें।
इन तीन मन्त्रो में ईश्वर द्वारा सृष्टि की रचना का वर्णन किया गया है। ईश्वर इस सृष्टि के बाहर और भीतर विद्यमान है। वह मनुष्यों की आत्मा के भी बाहर-भीतर विद्यमान है और हमारे अच्छे-बुरे विचारों, भावनाओं व मनुष्य के सभी कर्मों को जानता है और न्यायाधीश की भांति अपने विधान के अनुसार जन्म जन्मान्तर में उनका फल वा दण्ड देता है। यह जानकर सभी मनुष्यों को पाप व अशुभ कर्मों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये और वेदों के अनुसार ईश्वर की आज्ञा को जानकर उसका पालन व आचरण करना चाहिये। यही अघमर्षण मन्त्रों का सन्ध्या में विनियोग करने का प्रयोजन है।
अघमर्षण मन्त्रों के बाद तीन आचमन का विधान है और उसके बाद मनसा-परिक्रमा के 6 मन्त्रों का पाठ कर उन पर चिन्तन करते हुए ईश्वर को हर दिशा में विद्यमान जानकर उससे प्रार्थना कर व तदनुरूप पुरुषार्थ कर अभीष्ट की सिद्धि करनी होती है। मनसा परिक्रमा मन्त्रों के अर्थ हम आगामी किसी लेख में प्रस्तुत करेंगे। यह भी बता दें कि सन्ध्या की समाप्ति से पूर्व समर्पण मन्त्र का विधान है जिससे सन्ध्या का प्रयोजन व उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति सिद्ध होता है। यही मनुश्य जीवन का लक्ष्य भी है। अतः सन्ध्या करने से मनुष्य जीवन के लक्ष्य ‘मोक्ष’ की प्राप्ति में भी उन्नति होती है। समस्त वैदिक अनुष्ठानों व कर्मकाण्ड का उद्देश्य भी मनुष्य की सांसारिक व पारलौकिक उन्नति करना ही है। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य