सत्यधर्म का निश्चय, उसका आचरण और उसके जानने वाले विद्वानों के कर्तव्य
ओ३म्
देश में अनेक मत-मतान्तर, पंथ व सम्प्रदाय आदि हैं। आजकल इन सभी को धर्म की संज्ञा दी जाती है। हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई व इस्लाम को भी धर्म के नाम से ही सम्बोधित किया जाता है। किसी मत व पन्थ को किन्हीं व्यक्तियों द्वारा धर्म कहना उनकी अज्ञानता को ही प्रकट करता है। धर्म का अर्थ होता है श्रेष्ठ मानवीय गुणों को मनुष्य जीवन में धारण करना। जो मनुष्य श्रेष्ठ गुणों को धारण करता है वही धार्मिक होता है और जिसके जीवन में अवगुण व अन्य बुराईयां होती हैं वह मनुष्य धार्मिक न होकर धर्म से हीन होता है। संसार में सबसे पुराने ग्रन्थ वेद हैं। महर्षि दयानन्द की एक सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने विलुप्त वेदों को प्राप्त कर उनका प्रकाश किया और प्राचीन ऋषि परम्परा के अनुसार वेदों के प्रामाणिक अर्थ करके विश्व में निवास करने वाली समस्त मनुष्य जाति का कल्याण किया। उनका कार्य न ‘‘भूतो न भविष्यति” के समान महान व मानव जाति का उपकारक होने से प्रशंसनीय है। धर्म में जो मुख्य गुण है वह सत्य को ग्रहण करना और असत्य का त्याग करना होता है। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करना भी धर्म के क्षेत्र में ही आता है। जो मनुष्य सत्य को नहीं जानता और न हि प्रयास करता है तथा जो अपने अज्ञान का नाश न कर विद्या की उन्नति नहीं करता, उसे हम धर्म का आचरण करने वाला धार्मिक व मननशील मनुष्य नहीं कह सकते। यह भी ध्यातव्य है कि संसार के सभी मनुष्यों का धर्म एक ही होता है। ऐसा इस कारण होता है कि मनुष्यों के लिए आचरण योग्य सभी गुण देश, काल व सीमा से परे हैं व सर्वत्र एक समान हैं। अतः सत्य धर्म का निर्णय करने के लिए संसार में मनुष्य के आचरण को केन्द्र में रखकर उसे श्रेष्ठ गुणों वाला बनाने पर विचार कर उनका निर्णय करना है।
सत्य बोलना धर्म है, असत्य बोलना अधर्म है, ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, अनादि, अजन्मा, नित्य व सृष्टिकर्ता है। अतः ईश्वर के सत्य गुणों व स्वरूप को जानकर उसी स्वरूप को सबको मानना चाहिये और उन्हीं का ध्यान करते हुए ईश्वर का धन्यवाद, ईश्वरोपासना आदि करनी चाहिये। यही ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व इबादत हो सकती है। इसी आधार पर महर्षि दयानन्द ने सन्ध्योपासन की विधि वेदों में ईश्वर के सत्य गुण, कर्म, स्वभाव व स्वरूप के आधार पर बनाई है। धर्म के अन्तर्गत हमें अपनी आत्मा अर्थात् स्वयं का स्वरूप भी ज्ञान होना चाहिये। आत्मा भी सत्, चित्त, सूक्ष्माकार, आंखों से न दिखने योग्य, एक सूक्ष्म बिन्दू के समान जो शिर के बाल के अग्र भाग का लगभग एक हजारवां भाग व उससे भी छोटा व सूक्ष्म होता है आदि, यह जीवात्मा ऐसे अनेक गुणों वाला होता है। संसार में मनुष्य व अन्य किसी भी योनि में जन्म लेने वाली सभी जीवात्मायें अल्पज्ञ अर्थात् अल्प ज्ञान वाली होती है। उनकी क्षमता सर्वज्ञ होने अर्थात् पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने वाली नहीं होती। ईश्वर ने अपनी शाश्वत् प्रजा इन जीवात्माओं के लिए ही यह सृष्टि बनाई है और सभी जीवात्माओं को उनके पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर जन्म देकर सुख व दुःख प्रदान किया है व करता है। ईश्वर व जीवात्मा के साथ मनुष्यों को जड़ प्रकृति जो कि सत्, रज व तम गुणों वाली त्रिगुणात्मक है, अनादि व अविनाशी है तथा जिसकी विकृति ही यह सृष्टि है उसे भी सभी मनुष्यों को जानना चाहिये। धर्म का ज्ञान करने का सरल तरीका व साधन वेदों व सत्यार्थप्रकाश आदि वैदिक साहित्य का अध्ययन है जिसमें सत्य ज्ञान समाहित है और उसी को जानना व उसके अनुसार आचरण करना ही सभी मनुष्यों का धर्म निश्चित होता है।
जो मनुष्य सत्य धर्म का निर्धारण कर चुके हैं उनसे क्या अपेक्षायें होती है, इस पर भी विचार करना समीचीन है। जिस प्रकार सूर्य संसार को प्रकाशित करता है एवं एक ज्ञानी अपने शिष्यों को अपने ज्ञान से प्रकाशित कर उनकी अविद्या व अज्ञान को दूर कर उन्हें ज्ञानी व विद्वान बनाता है, लगभग वही कार्य सत्य धर्म को जानने व मानने वालों का निर्धारित होता है। सत्य धर्म को जानने वाले लोगों को अपनी वाणी, लेख व उपदेशों से उन लोगों में उन मान्यताओं का प्रचार करना चाहियें जहां उनका ज्ञान नहीं है। उदाहरण के लिए हम सृष्टि के आरम्भ में ज्ञान के प्रचार व प्रसार पर विचार करते हैं तो ज्ञात होता है कि ईश्वर ने चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद का, एक एक वेद का ज्ञान दिया था। उन चार ऋषियों ने ब्रह्मा जी को वेद पढ़ाये और उसके बाद सभी पांच ऋषियों ने अन्य मनुष्यों में वेदों के पठन पाठन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जो आज तक विद्यमान है और जिसके अनुसार ही स्वामी दयानन्द जी ने अपने विद्या गुरु प्रज्ञाचक्षु दण्डी स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से मथुरा जाकर वैदिक व्याकरण और शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया था। आज भी माता-पिता अपने अपने ज्ञान व अनुभवों के अनुरूप उपदेशों के द्वारा अपनी सन्तानों का मार्गदर्शन करते हैं। विद्यालयों में तो आचार्यगण मौखिक उपदेश व पुस्तकों आदि की सहायता से अपने शिष्यों का ज्ञानवर्धन करते ही हैं। ऐसी ही अपेक्षायें सत्य धर्म को जान लेने पर मनुष्यों से होती हैं। महर्षि दयानन्द ने ही अपने समय में इस परम्परा का शुभारम्भ किया था। उनके समय में यह परम्परा बन्द व शिथिल हो चुकी थी अतः उन्होंने सत्य धर्म का निर्धारण करके वेदेां व वेदाध्ययन की परम्परा का पुनरुद्धार किया। उसके बाद उनके शिष्यों ने इस परम्परा को बढ़ाया व आज तक यह क्रम जारी रखा है।
संसार में जितने भी मत-मतान्तर आदि हैं, उनसे अपेक्षा होती है कि वह अपने अपने मत की मान्यताओं पर पुनर्विचार कर उनमें से असत्य भाग को पृथक करें और सत्य भाग को जारी रखते हुए असत्य के स्थान पर सत्य को अपनायें। यदि यह प्रयास किया जायेगा तो आने वाले समय में संसार के सभी मनुष्यों का एक मत हो सकता है जिसका सुपरिणाम यह होगा कि मत-मतान्तरों के नाम पर होने वाले सभी झगड़े व हिंसा आदि समाप्त होकर विश्व में सुख व शान्ति का एक नया युग आरम्भ हो सकता है। इसी कारण महर्षि दयानन्द ने अपने विद्या गुरु के परामर्श से सत्य ज्ञान वेद जो ईश्वर प्रदत्त है, तथा जिसमें कोई बात असत्य, अप्रामाणिक व सृष्टिक्रम के विरुद्ध नहीं है, देश-देशान्तर में प्रचार किया था। उन्होंने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ के अन्त में सार्वभौमिक सिद्धान्त व नियमों के प्रकाश के लिए ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ नाम से वैदिक सत्य मान्यताओं का प्रकाश किया है जो संसार के सभी लोगों के लिए माननीय है। ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ भी महर्षि दयानन्द जी का ‘स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश’ के समान ही एक महत्वपूर्ण लघु ग्रन्थ है। आर्यसमाज को वेद और ऋषि दयानन्द की मान्यताओं का पुरजोर प्रचार करना चाहिये। ऐसा होने पर ही ऋषि ऋण से उऋण हुआ जा सकता है और संसार स्वर्ग बन सकता है।
आज विज्ञान अपनी चरम उन्नति पर पहुंच गया है। भविष्य में भी अनेक खोजें व आविष्कार होंगे जिससे मनुष्यों को लाभ होगा और इनके दुरुपयायेग से हानि भी हो सकती है। इसके साथ ही देश देशान्तर में धर्म व मत-मतान्तरों की मान्यताओं पर भी वाद-विवाद होना चाहिये और सत्य मान्यताओं व विचारों को लोगों को स्वीकार करने के साथ सत्य धर्म का निर्धारण कर उसका प्रचार करना चाहिये। हमने विषय के अनुरूप इस लेख में कुछ विचार किया है। इसे विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य